दुनिया में पर्यावरण सम्मेलनों में पर्यावरण से निपटने के लिए टेक्नोलॉजी और उपकरणों की बात तो होती है, क्योंकि उससे वैश्विक कंपनियों को लाभ कमाना होता है, लेकिन वैश्विक उष्णता के लिए जिम्मेदार मांसाहार और उपभोग में बर्बादी और फिजूलखर्ची पर कोई बात करने के लिए तैयार नहीं। - डॉ. अश्वनी महाजन
(यह लेख मांसाहार के विरोध में नहीं, बल्कि शाकाहार के महत्व को स्पष्ट करने के उद्देश्य से लिखा गया है।)
मानवता की उत्पत्ति के शुरूआत से ही मांसाहार और शाकाहार दोनों ही मानव की खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहे हैं। शायद उस वक्त शाकाहार और मांसाहार के बीच में अंतर नहीं होता था, लेकिन बाद में मानव ने मांसाहार और शाकाहार में अंतर करना प्रारंभ किया और आज यह स्थिति है कि प्यू रिसर्च सर्वेक्षण (2021) के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में लगभग 39 प्रतिशत भारतीय किसी न किसी प्रकार से मांस के उपयोग से परहेज करते हैं। 39 प्रतिशत लोगों ने इस सर्वेक्षण में स्वयं को शाकाहारी ही कहा है। अधिकांश भारतीय कभी-कभार ही मांस का उपभोग करते हैं। यही कारण है कि भारत में प्रतिव्यक्ति मांस का उपभोग 3.1 किलोग्राम प्रतिवर्ष है, जबकि अमरीका में यह 109 किलोग्राम, यूरोप में 84 किलोग्राम और सकल विश्व में यह 44.5 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष है।
देखा जाए तो भारतीय मांसाहारी होने पर भी धार्मिक आस्थाओं के आधार पर भी कुछ प्रकार के मांस का सेवन नहीं करते। उदाहरण के लिए हिन्दु और सिख गाय के मांस से, मुस्लिम पोर्क के मांस से परहेज रखते हैं। भारत की तुलना में शेष विश्व में शाकाहार का चलन कम है। दुनिया के औसतन 3 से 5 प्रतिशत लोग ही शाकाहारी हैं। अकेले भारत में ही दुनिया के 70 प्रतिशत शाकाहारी रहते हैं। कई बार कुछ लोग आधुनिकीकरण को मांसाहार से जोड़कर देखने लगे हैं। लेकिन हमें समझना होगा कि आधुनिक और समझदारी का विचार मांसाहार में नहीं, बल्कि शाकाहार में है।
पिछले कुछ समय से शाकाहार में भी एक अलग प्रकार का चलन बढ़ रहा है, जिसे वेगन अभियान के नाम से जाना जाता है। इसमें मांस के अतिरिक्त अन्य पशु उत्पाद जैसे दूध और दुग्ध उत्पादों के उपयोग से भी परहेज करने की सलाह दी जाती है। उनका कहना है कि दूध के उत्पादन के लिए पशुओं पर अत्याचार होता है। ऐसा माना जाता है कि विश्व में एक से दो प्रतिशत लोग ‘वेगन’ आहार अपना चुके हैं। हालांकि वेगनवाद का खासा विरोध भी हो रहा है कि इस दूध जो शाकाहारी माना जाता है, यदि उसके सेवन से बचा जाएगा, तो इस कारण से पशु पालन जैसे रोजगार के अवसरों पर चोट होने का खतरा उत्पन्न हो सकता है। समझना होगा कि भारत में दूध का उत्पादन और दुग्ध उत्पादों का सेवन हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।
क्यों महत्वपूर्ण है शाकाहार?
आज विश्व पर्यावरण असंतुलन, मौसम परिवर्तन और वैश्विक उष्णता यानि ग्लोबल वार्मिंग के भयंकर संकट से गुजर रहा है। औद्योगिकीकरण से पूर्व की तुलना में दुनिया का तापमान लगभग 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है। तब से लेकर अब तक दुनिया की आबादी लगभग 5 गुणा तक बढ़ चुकी है। इस दौरान दुनिया में उपभोग में तो उससे भी ज़्यादा वृद्धि हुई है। वैश्विक उष्णता बढ़ाने में औद्योगिकरण का योगदान तो है ही, लेकिन साथ ही साथ इसके लिए जिम्मेदार ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन इतनी बड़ी जनसंख्या के उपभोग के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री और अन्य प्रकार के उत्पादनों के कारण भी हो रहा है। जीडीपी बढ़ने के साथ-साथ लोगों की आमदनी भी बढ़ी है, और उसके साथ ही साथ उपभोक्ता वस्तुओं पर फिजूल खर्ची के साथ-साथ खाद्य सामग्री की बर्बादी भी बढ़ी है। पूर्व में जहां उपभोक्ता वस्तुओं का जीवन लंबा होता था, वर्तमान युग में युज एंड थ्रो यानि इस्तेमाल करो और फेंक दो, की आदत के कारण दुनिया में न केवल कचरा बढ़ा है, बल्कि जरूरत से ज्यादा उत्पादन के कारण ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन भी ज्यादा हुआ है।
समझा जा सकता है कि इस वजह से संयमित उपभोग की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है। पूरी दुनिया में 71 प्रतिशत क्षेत्र में पानी है और मात्र 29 प्रतिशत ही भूमि है। और इस 29 प्रतिशत में सिर्फ 20 प्रतिशत ही रहने योग्य है, 10 प्रतिशत पर कृषि होती है और इस कृषि योग्य भूमि में सिर्फ 2.4 प्रतिशत पर ही फसलों की खेती होती है और 8 प्रतिशत भूमि पर पशुपालन के लिए जरूरी खेती होती है। इस 2.4 प्रतिशत भूमि पर होने वाली खेती से मनुष्यों की 83 प्रतिशत कैलोरी आवश्यकता पूर्ण होती है और पशुपालन के लिए जहां 8 प्रतिशत भूमि का इस्तेमाल हो रहा है, उससे मात्र 17 प्रतिशत कैलोरी आवश्यकता की पूर्ति होती है। 63 प्रतिशत प्रोटिन की आवश्यकता भी इसी 2.4 प्रतिशत भूमि होती है, जबकि 37 प्रतिशत प्रोटीन ही पशुपालन से उत्पन्न उत्पादों से मिलती है।
भारत के पास दुनिया की सिर्फ 2 प्रतिशत ही भूमि है। जबकि हमारी जनसंख्या दुनिया की 18 प्रतिशत है। दुनिया के 30 प्रतिशत पशु और 8 प्रतिशत जैव संसाधन भारत में पाए जाते हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए खाद्य उत्पादन करने के साथ-साथ भारत अपने जैव संसाधनों का संरक्षण करने में भी सफल रहा है। इसका कारण यह है कि भारत में अधिकांश लोग शाकाहारी हैं और जो मांस का उपभोग भी करते हैं, उनमें से भी अधिकांश कभी कभार ही मांस का सेवन करते हैं। भारत में होने वाला पशुपालन, दुनिया की मांसाहारी जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति करता है। गौरतलब है कि भारत से प्रतिवर्ष 1.3 करोड़ मीट्रिक टन भैंस के मांस का निर्यात प्रतिवर्ष होता है। भारत की शाकाहारी आदतें दुनिया में खाद्य पदार्थों की कमी नहीं होने देती।
यदि देखें तो विश्व की आबादी में शाकाहारी लोगों में से कुल 70 प्रतिशत अकेले भारत में ही रहते हैं। दुनिया में कुल ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में मांसाहार के लिए जरूरी पशुपालन से होने वाला उत्सर्जन 15 प्रतिशत है। एक किलो मांस के लिए उत्पादन के लिए उसके बराबर अनाज, दालों या सब्जी के उत्पादन की तुलना में 20 से 30 गुणा ज्यादा ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन होता है। समझा जा सकता है कि दुनिया में यदि 10 प्रतिशत अतिरिक्त लोग भी शाकाहारी हो जाएं तो खाद्य उत्पादन से संबंधित ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन 35 से 30 प्रतिशत कम हो सकता है। मांस के उत्पादन में कहीं ज्यादा, लेकिन डेयरी से मात्र 3.4 प्रतिशत ग्रीन हाऊस गैसों का ही उत्सर्जन होता है, जिसमें आधा मिथेन गैस के उत्सर्जन से, और शेष चारे, यातायात, प्रोसेसिंग, और खाद्य निर्माण में होता है। समझना होगा कि जहां प्रति किलो मांस उत्पादन में 60 किलो ग्रीन हाऊस गैसों (सीओ2ई) का उत्सर्जन होता है, एक लीटर दूध में मात्र 3.2 किलो सीओ2ई का उत्सर्जन होता है।
यदि दुनिया को वैश्विक उष्णता और मौसम परिवर्तन के कष्टों से मुक्ति दिलानी हो तो दुनिया में तेजी से शाकाहार को बढ़ाना होगा। इसी के साथ-साथ यदि भारत की मितव्ययी आदतों को दुनिया अपनाना शुरू कर दें और यूज एंड थ्रो की मानसिकता से बाहर आ जाएं, तो वैश्विक उष्णता के संकट से जल्दी निजात पाया जाएगा। दुर्भाग्य का विषय यह है कि दुनिया में पर्यावरण सम्मेलनों में पर्यावरण से निपटने के लिए टेक्नोलॉजी और उपकरणों की बात तो होती है, क्योंकि उससे वैश्विक कंपनियों को लाभ कमाना होता है, लेकिन वैश्विक उष्णता के लिए जिम्मेदार मांसाहार और उपभोग में बर्बादी और फिजूलखर्ची पर कोई बात करने के लिए तैयार नहीं।