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विदेशी मुद्रा भंडारों के सही उपयोग की दरकार

आज अवसर है कि देश में विदेशी मुद्रा भंडार और विनिमय दर की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए सरकार प्रयासों को पुनः तेज करे। यही दीर्घकाल में सही नीति होगी, अन्यथा देश इन पोर्टफोलियो निवेशकों की अनिश्चितता से हमेशा ग्रसित रहेगा। — डॉ. अश्वनी महाजन

 

विकास की राह पर अग्रसर विकासशील देशों को सामान्यतः विदेशी मुद्रा की कमी से जूझना पड़ता है। विकास के लिए जरूरी पूंजीगत और मध्यवर्ती वस्तुओं के आयात की आवश्यकता और निर्यात की सीमित संभावनाओं के चलते विदेशी मुद्रा की मांग इसकी पूर्ति से कहीं ज्यादा होती है। इसलिए उन्हें विदेशों से भारी ऋण भी लेना पड़ता है। उसके मूल और ब्याज की अदायगी के कारण भी उन्हें विदेशी मुद्रा की कमी से जूझना पड़ता है।

1991 में भारत को इस कमी से रूबरू होना पड़ा था। स्थिति यहां तक पहुंच गई थी कि देश के पास एक सप्ताह के आयातों के बराबर भी विदेशी मुद्रा भंडार नहीं बची थी। लेकिन उसके बाद हमें कभी भी वैसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था। हाल ही में विदेशी मुद्रा भंडार पूर्व के सभी रिकार्ड तोड़ता हुआ 575 अरब डालर से ज्यादा पहुंच चुका है।

वास्तव में देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। यह एक प्रकार से नीति-निर्माताओं को राहत और संतुष्टि प्रदान करता है क्योंकि भविष्य में किसी भी अनहोनी के बावजूद हमारे आयातों के भुगतान अथवा ऋणों की अदायगी में कोताही की आशंका नहीं रहती। गौरतलब है कि आज हमारे विदेशी मुद्रा भंडार 15 महीने के आयातों के बराबर पहुंच चुके हैं।

कैसे बढ़े विदेशी मुद्रा भंडार

हालांकि पिछले काफी समय से विदेशी मुद्रा भंडार लगातार बढ़ते रहे हैं, लेकिन हाल ही में बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडारों का एक विशेष संदर्भ है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि जब कोरोना काल में दुनिया भर के देश घटती जीडीपी और घटते निर्यातों की समस्या से जूझ रहे हैं, हमारे विदेशी मुद्रा के भंडार बढ़ते जा रहे हैं। पिछले आठ महीनों में विदेशी मुद्रा भंडार 100 अरब से भी ज्यादा बढ़े हैं। इसका कारण यह है कि एक ओर अप्रैल के बाद आयातों में भारी कमी आई है और दूसरी तरफ बड़ी मात्रा में विदेशी निवेश भारत की ओर आकर्षित हुआ है। अप्रैल और नवंबर के बीच लगभग 19 अरब डालर के पोर्टफोलियों निवेश और 23 अरब डालर से भी ज्यादा के एफडीआई प्राप्त हुई है। लॉकडाउन के चलते तेल का आयात तो कम हुआ ही है, साथ ही साथ इलैक्ट्रॉनिक्स और सोने का आयात भी खासा घटा है। तेल की घटती कीमतों और साथ ही साथ घटती आयात की मात्रा के चलते इस साल अप्रैल और सितंबर के बीच मात्र 31.9 अरब डॉलर के तेल का आयात हुआ, जबकि पिछले वर्ष अप्रैल और सितंबर के बीच यह आयात 65 अरब डालर का था। पिछले साल अप्रैल और अक्टूबर के बीच 17.6 अरब डालर के सोने का आयात हुआ था, जो इस वर्ष के उसी कालखंड में मात्र 9.2 अरब डालर ही रह गया है। पिछले साल अप्रैल और अक्टूबर के बीच इलैक्ट्रॉक्सि वस्तुओं का आयात 34.7 अरब डालर था, जो इस वर्ष 28.6 अरब डालर ही हुआ।

एक देश जिसने विदेशी मुद्रा भंडारों की भारी कमी देखी हो, जिसमें हफ्ते भर के आयातों के लिए भी विदेशी मुद्रा न हो, वो इस प्रकार की आरामदायक स्थिति में पहुंच गया, यह बड़ी राहत का विषय है। साथ ही साथ विदेशी मुद्रा भंडारों की कमी, देश की मुद्रा के अवमूल्यन का भी कारण बनती है। सब जानते हैं कि विनिमय दर यानि विदेशी मुद्रा की रूपयों में कीमत, विदेशी मुद्रा की मांग और पूर्ति पर निर्भर करती है। बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडार इंगित कर रहे हैं कि देश में विदेशी मुद्रा की पूर्ति उसकी मांग से कहीं ज्यादा है। ऐसी स्थिति में स्वभाविकतौर पर हमारे रूपए का जो लगातार अवमूल्यन हो रहा था, वो थमा है और हम देखते हैं कि डालर का रूपए में मूल्य जो अप्रैल में 77 रूपए प्रति डालर पहुंच गया था, अब लगभग 74 रूपए प्रति पहुंच गया है। यानि बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडारों ने रूपए के अवमूल्यन पर रोक लगाई है।

सही प्रबंधन की दरकार

हालांकि विदेशी मुद्रा भंडार हमें राहत का एहसास कराते हैं कि अब हमारे रूपए का और अवमूल्यन नहीं होगा और देश को विदेशी भुगतानों को करने में सुविधा होगी। लेकिन हमें समझना होगा कि बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडारों का एक बड़ा नुकसान भी है। विदेशी मुद्रा भंडारों में मात्र स्वर्ण ही ऐसा भंडार है, जिसकी कीमत दीर्घकाल में बढ़ती ही रहती है। लेकिन विदेशी मुद्राओं के भंडार बढ़ने से सामान्यतः कोई मौद्रिक फायदा नहीं होता। हमारे अधिकांश विदेशी मुद्रा भंडार विदेशी केन्द्रीय बैंकों में निवेश कर दिए जाते हैं, जिनपर सामान्यतः 0.25 प्रतिशत से 0.5 प्रतिशत की ही दर से ब्याज मिलता है। लेकिन जिन कारणों से विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ रहे हैं, जैसे पोर्टफोलियो निवेश, उन निवेशों से विदेशी निवेशक 25 से 30 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा लाभ अर्जित कर लेते हैं। इसी प्रकार प्रत्यक्ष विदेशी निवेशक भी भारी मात्रा में आमदनी अर्जित कर अपने देशों को प्रेषित करते हैं।

विदेशी मुद्रा भंडारों में वृद्धि और कमी दोनों विदेशी निवेश पर निर्भर करती है। सामान्यतः देखा गया है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और खासतौर पर नयी परियोजनाओं में विदेशी निवेश अधिक स्थिर होता है, क्योंकि ये निवेशक लंबे समय तक टिकने की मानसिकता से आते हैं। साथ ही साथ इनके साथ नई प्रौद्योगिकी भी आती है और संसाधनों की कमी दूर कर यह रोजगार और उत्पादन भी बढ़ाता है। समर्थकों का तर्क रहता है कि विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के तमाम उपाय अपनाये जाने चाहिए।

लेकिन समझना होगा कि सभी विदेशी निवेश एक जैसे नहीं होते। खासतौर पर पोर्टफोलियो निवेश तो अत्यंत अनिश्चित एवं उड़नशील होते हैं। शेयर बाजारों में ही नहीं बल्कि विदेशी मुद्रा भंडारों और विनिमय दर में भी अनिश्चितता का कारण बनते हैं। इसके कारण देश की मुद्रा का बिना वजह अवमूल्यन होता रहता है। उधर देश में एक वर्ग ऐसा होता है, जो इस अवमूल्यन का समर्थन करता है और हमारी मुद्रा का मूल्य घटता ही चला जाता है। इसलिए जरूरी है कि पोर्टफोलियो निवेश की अनिश्चितता पर विराम लगाया जाए। 

कैसे रूके अनिश्चितता

वर्तमान में स्थिति यह है कि पोर्टफोलियो निवेशक अधिकांशतः शेयर बाजारों में ही निवेश करते हैं, क्योंकि शेयर बाजारों में उथल-पुथल से अधिकाधिक लाभ उठा पाएं। यह सर्वथा सिद्ध है कि शेयर बाजारों में उथल-पुथल भी वे खुद ही मचाते हैं। अचानक बड़ी मात्रा में निवेश कर शेयरों के भावों को एकाएक बढ़ा देते हैं और इसके साथ-साथ बढ़ते भावो के लालच में लोग भी भारी मात्रा में निवेश कर देते हैं। लेकिन इसके बाद यही पोर्टफोलियो निवेशक अचानक बढ़े भावों पर शेयरों की बिकवाली कर, बाजार गिरा देते हैं, जिसका खामियाजा आम निवेशक को भुगतना पड़ता है। और ऐसे में जब ये पोर्टफोलियो निवेशक विदेशी मुद्रा अपने देश में ले जाते हैं तो उससे भारतीय रूपए का भी अवमूल्यन होता है।

चूंकि देश विदेशी मुद्रा की कमी से जूझ रहा था, इसलिए सरकारें कोई भी ऐसा कदम उठाना नहीं चाहती थी, जिससे पोर्टफोलियो निवेशक, निवेश करने से निरूत्साहित हों। यानि यूं कहें कि सरकार उन्हें नाराज करने से बचती थी। लेकिन आज जब विभिन्न कारणों से हमारा विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ रहा है और देश द्वारा आत्मनिर्भरता के प्रयासों के चलते आयातों में भी कमी आने की पूरी संभावना है और विदेशी निवेश के अवसर भी बढ़ रहे हैं, हमें कुछ ऐसे प्रयास करने पड़ेंगे, जिससे पोर्टफोलियो निवेशको की अनुशासनहीनता रोकी जा सके।

इस संबंध में उनपर न्यूनतम निवेश काल (लॉकइन पीरियड) की बंदिश लगाई जा सकती है। साथ ही जब वे अपनी राशि वापिस ले जाएं तो उन पर चाहे न्यूनतम ही सही, कुछ कर जरूर लगाया जाए। इसके अतिरिक्त कई अन्य उपाय भी उनके बर्हिगमन पर लगाए जा सकते हैं। हाल ही में हमने देखा कि जब पिछले साल सरकार ने सालाना 2 करोड़ रुपये से अधिक आय कमाने वाले पोर्टफोलियो निवेशकों पर कर लगाने का प्रस्ताव रखा, तो उन्होनें अपने निवेश वापिस ले जाकर सरकार पर दबाव बनाया यानि दूसरे शब्दों में कहें कि ब्लैकमेल करना शुरू किया। ऐसे में सरकार ने उनके दबाव में आकर अपना फैसला वापिस ले लिया था।

आज अवसर है कि देश में विदेशी मुद्रा भंडार और विनिमय दर की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए सरकार प्रयासों को पुनः तेज करे। यही दीर्घकाल में सही नीति होगी, अन्यथा देश इन पोर्टफोलियो निवेशकों की अनिश्चितता से हमेशा ग्रसित रहेगा।          

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