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उच्च मूल्य की कृषि फसलों का उत्पादन जरूरी

जलवायु से धनी भारतवर्ष द्वारा वैश्विक स्तर की उच्च मूल्य कि फसलें उगाकर विश्व बाजार में पैठ बनाई जा सकती है। — डॉ. भरत झुनझुनवाला

 

किसानों द्वारा नये कृषि कानून को निरस्त किये जाने की मांग आंशिक रूप से सही है चूँकि इसके पीछे सरकार की मंशा समर्थन मूल्य को हटाने की दिखती है। सरकार द्वारा दिए गये समर्थन मूल्य से कुछ विशेष फसलें जैसे- गन्ना, गेहूं एवं धान से किसानों को उचित दाम मिल जाते हैं। इस समर्थन मूल्यों के चलते किसान इन फसलों का उत्पादन उत्तरोत्तर बढ़ा रहे हैं। उन्हें यह डर नहीं रहता है कि बाजार में फसल के दाम गिर जायेंगे और उन्हें नुकसान हो सकता है। कुछ वर्ष पूर्व पालनपुर में किसानों ने अपनी आलू की फसल को सड़कों पर लाकर डम्प कर दिया था। उनका कहना था कि मंडी में आलू के दाम 2 रूपये प्रति किलो रह गये हैं, जिस मूल्य पर आलू को खोदकर मंडी तक पहुँचाने का भी खर्च वसूल नहीं होता है। अतएवं अपना क्रोध जताने के किये उन्होंने आलू को सड़कों पर डाल दिया था। इसी क्रम में कुछ वर्ष पूर्व राजस्थान में ग्वार की फसल ज्यादा होने से किसानों को भारी घाटा लगा था। लेकिन गन्ना, गेहूं एवं धान कि फसल में ऐसी परिस्तिथि नही आती है। किसान को निर्धारित मूल्य मिलता ही है, कितना भी उत्पादन बढ़ जाये। समर्थन मूल्य के चलते किसानों को गन्ना, गेहूं एवं धान में इस प्रकार के मूल्य की गिरावट का संदेह नहीं रहता है और उन्हें पर्याप्त लाभ मिल जाता है। किसान की खुशहाली में समर्थन मूल्य कि अहम् भूमिका है।

लेकिन हमारी कृषि सरकारी समर्थन पर खड़ी है, न कि बाजार में अपनी प्रतिस्पर्धा शक्ति पर। जैसे कोई व्यक्ति बैसाखी पर चलता है उसी प्रकार हमारे पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान समर्थन मूल्य की बैसाखी पर आश्रित हैं। विदित हो कि इस समर्थन मूल्य का जो भार होता है वह अंततः आम आदमी पर पड़ता है। जैसे यदि बाजार में गेहूं का दाम 12 रूपये प्रति किलो हो और समर्थन मूल्य 17 रूपये प्रति किलो हो तो 5 रूपये प्रति किलो का अतिरिक्त मूल्य फ़ूड कारपोरेशन द्वारा किसान को भुगतान किया जाता है। यह रकम अंततः सरकार द्वारा फ़ूड कारपोरेशन को उपलब्ध करायी जाती है और सरकार द्वारा जनता पर टैक्स लगाकर वसूल की जाती है। इस प्रकार किसान की खुशहाली अंततः आम आदमी से टैक्स वसूल करके टिकी हुई है। फिर भी समर्थन मूल्य का सार्थक परिणाम है कि आज किसान पर्याप्त मात्रा में गन्ना, गेहूं एवं धान का उत्पादन कर रहे हैं और हम भुखमरी से बचे हुए हैं। लेकिन दूसरी ओर देश की अर्थव्यवस्था पर यह एक बोझ बन रहा है, क्योंकि किसानों को बाजार से अधिक मूल्य उपलब्ध कराने के लिए सरकार द्वारा जनता से टैक्स वसूल किया जा रहा है। फ़ूड कारपोरेशन की अकुशलता एवं संभावित भ्रष्टाचार का बोझ भी जनता पर ही पड़ता है। इसके अलावा गन्ना, गेहूं एवं धान का निर्धारित मूल्य मिलने के कारण किसान दूसरी लाभप्रद फसलों पर ध्यान नहीं दे रहे है।

सरकार के सामने दोतरफा चुनौती है। समर्थन मूल्य के बावजूद किसानों की आय में वृद्धि बहुत ही कछुआ चाल से हो रही है। सेंटर फार मानिटरिंग आफ इंडियन इकॉनमी के अनुसार वर्ष 2013 से 2019 के बीच देश के किसानों की आय में मात्र 7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि सरकार का लक्ष्य इन्हीं वर्षों में इसे दोगुना यानि 100 प्रतिशत वृद्धि का था। एक तरफ किसानों की आय में वृद्धि नहीं हो रही है और दूसरी तरफ सरकार पर समर्थन मूल्य का बोझ पड़ रहा है। इन दोनों समस्याओं का हल उत्पादन बढ़ाकर हासिल नहीं हो सकता है। सरकार ने सिंचाई के विस्तार, फर्टिलाइजर के सही उपयोग, ड्रोन से रोगों की पहचान, आदि तमाम सुधार कृषि क्षेत्रों में किये हैं जो कि सराहनीय है। लेकिन इन प्रयासों का अंतिम परिणाम उत्पादन में वृद्धि है जो कि, जैसा कि ऊपर बताया गया है, किसान के हानिप्रद हो सकता है, जैसा कि पालनपुर के किसानों को आलू के अधिक उत्पादन करने पर मुँह की खानी पड़ी थी।

हमें इस मसले पर दूसरी तरह से सोचना पड़ेगा। हमें दूसरे देशों से सबक लेना चाहिए। आज नीदरलैंड का छोटा सा देश एक वर्ष में 2500 करोड़ रूपये के केवल ट्यूलिप फूलों का निर्यात करता है। इटली और टुनिशिया जैतून का सम्पूर्ण विश्व को निर्यात करते हैं। फ्रांस द्वारा विशेष गुणवत्ता के अंगूर का उत्पादन कर उससे शराब बनाकर सम्पूर्ण विश्व को निर्यात किया जाता है। अमरीका से सेब और अखरोट का सम्पूर्ण विश्व को निर्यात हो रहा है। दक्षिण अमरीका के पनामा से केले, वियतनाम से काफी और मलेशिया से रबर का भारी मात्रा निर्यात किया जा रहा हैं। इन तमाम देशों ने किसी विशेष फसल में अपनी महारत हासिल करके उस फसल के वैश्विक बाजार में अपनी पैठ बना ली है और उस विशेष फसल का निर्यात करके वे भारी रकम कमा रहे हैं। अतः हमें भी ऐसी फसलों की खोज करनी चाहिए जिन फसलों पर हम वैश्विक बाजार में अपनी सुदृढ़ पैठ बना सकें। उन फसलों की गुणवत्ता अन्य सभी देशों की तुलना में अच्छी और दाम कम होने चाहिए, जिससे हम प्रतिस्पर्धा में खड़े रह सकें। हमारे देश का सौभाग्य है कि यहाँ हर प्रकार की जलवायु बारहों माह उपलब्ध रहती है। जैसे सर्दियों में तमिलनाडु और महाराष्ट्र का तापमान कम रहता है तो गर्मी में हिमालयी राज्यों का तापमान कम रहता है। हम संपूर्ण विश्व को बारहों महीने गुलाब, ग्लाइडोलस और ट्यूलिप जैसी फसलें उपलब्ध करा सकते हैं। हमारे पूर्वोत्तर देशों में ऑर्किड नाम के फूल होते हैं जिनका सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में उत्पादन किया जा सकता है। इन फूल की एक छड़ी 5000 रूपए तक में बिकती है। हमारे सामने चुनौती है कि हम अपनी जलवायु की विविधता का लाभ उठाकर ऐसी फसलों पर अपना ध्यान केन्द्रित करें जिनका हम पूरे वर्ष भर उत्पादन करके निर्यात कर सकें। तब हम अपने किसानों को ऊँची आय उपलब्ध करा सकेंगे। आज नीदरलैंड, इटली, फ्रांस और अमरीका के खेत श्रमिकों को लगभग 8 हजार रुपया प्रतिदिन का वेतन इन्हीं फसलों के उत्पादन में मिल रहा है। हम भी अपने खेत श्रमिकों को 8 हजार रूपये प्रतिदिन की आय उपलब्ध करा सकते हैं यदि हम इन विशेष फसलों के उत्पादन और निर्यात पर ध्यान दें। दुर्भाग्य है कि हमारी यूनिवर्सिटी और प्रयोगशालाएं इतनी लचर हैं कि वे इस प्रकार के कार्य में सफलता हासिल नहीं कर पा रही हैं। इनके वैज्ञानिकों को वास्ताव में रिसर्च करने में कोई रूचि नहीं है जिसके कारण आज सम्पूर्ण कृषि क्षेत्र संकट में है और हमारे किसान समर्थन मूल्य की बैसाखी को बनाये रखने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। जलवायु से धनी भारतवर्ष द्वारा वैश्विक स्तर की उच्च मूल्य कि फसलें उगाकर विश्व बाजार में पैठ बनाई जा सकती है।

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