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सरकारी बैंकों के निजीकरण की नीति गलत 

सरकारी होने में कोई वैचारिक दोष नहीं है। व्यवस्थापकीय दोष जहां होता है उसको ठीक करने की कोशिश होनी चाहिए। आशा है सरकार रिजर्व बैंक के विशेषज्ञ की बात मानेगी और सरकारी बैंकों के निजीकारण की नीति में बदलाव लाएगी।  — अनिल जवलेकर

 

सरकारी बैंकों का निजीकरण फिर एक बार चर्चा में है। इस बार रिजर्व बैंक के अगस्त 2022 की बुलेटिन में इस विषय पर एक लेख छपा है जिसमें सरकारी बैंकों की कार्य प्रणाली को निजी बैंकों की तुलना में सराहा गया है। भारत में स्वतंत्रता के पहले और बाद में 20 से ज्यादा वर्षों तक भारतीय आर्थिक क्षेत्र में निजी बैंकों का बोल बाला था और वे सीमित हाथों में नियंत्रित थे। स्वतंत्रता के बाद जब भारतीय सरकार ने कल्याणकारी राजकीय व्यवस्था की बात की तो यही निजी बैंक उपयोगी नहीं हो पा रहे थे और इसलिए सरकार को 70 दशक के शुरू में बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा था। सरकार और सरकारी बाबू के नियंत्रण में आने से और उनके हर बात पर दखल देने के अंदाज से यह बैंक डूबने के कगार पर पहुंच गए और फिर एक बार इनके निजीकरण की बात चली। 1990 के दशक से सरकार ने सब कुछ निजी हाथों में सौपने की नीति अपनाई जिसमें सारे सरकारी बैंकों का निजीकरण करना भी शामिल था। जनमत प्रवाह इसके समर्थन और विरोध में रहा और चर्चाएं भी होती रही।  

रिजर्व बैंक के विशेषज्ञ क्या कहते है

1990 के दशक से दुनिया भर में निजीकरण की हवा चली और नतीजन गत 4 दशकों में सरकार ने अपनी भागीदारी सभी क्षेत्रों में कम की। बैंकिंग क्षेत्र भी उससे वंचित नहीं है। भारत की बात की जाये तो भारत ने एक एसबीआई छोड़कर सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण की बात की है। इस संदर्भ में सरकारी बैंकों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए विशेषज्ञों के कुछ तथ्य सामने रखे है जो यह बताते है कि राष्ट्रीयकृत बैंक निजी बैंकों की तुलना में किसी भी प्रकार से कम नहीं है। उनका विस्तार ग्रामीण क्षेत्र में निजी बैंकों के तुलना में ज्यादा है और ग्रामीण ऋण में भी उन्हीं की हिस्सेदारी अधिक है। निजी बैंक की तुलना में सरकारी बैंकों ने एटीएम और बीजिनेस करस्पोंडंस मोडेल के तहत सुविधा भी ग्रामीण क्षेत्र में अच्छी दी है। जन धन योजना के अंतर्गत 78 प्रतिशत खाते सरकारी बैंकों में ही है और ऐसे 60 प्रतिशत खाते ग्रामीण क्षेत्र में है। यह बात सही है कि जब फायदे की बात आती है तो निजी बैंक आगे रहते है। लेकिन यह भी सही है कि जब बात आर्थिक दृष्टि से पिछड़ों को लाभ पहुंचाने की हो तो सरकारी बैंक आगे रहते है। विशेषज्ञों ने यह बात भी स्पष्ट की है कि सरकारी बैंक के श्रम खर्चे निजी बैंक के तुलना में काफी कार्यक्षम है। इसका मतलब सरकारी बैंक कर्मचारी भी कार्यक्षम है। सरकारी बैंक ने कृषि और संलग्न क्षेत्र के लिए ज्यादा महत्व दिया है और निजी बैंक के तुलना में ज्यादा ऋण वितरित किया है। इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को भी सरकारी बैंक ही मदद करते देखे गए है। यह बात भी उल्लेखनीय है की जब अस्तित्व पर खतरा मंडराता है तो डिपॉज़िट निजी बैंक से सरकारी बैंक में जाते है और यह इसलिए होता है कि सरकारी बैंकों के पीछे सरकार खड़ी होती है। यही विश्वास सरकारी बैंक की साख बढ़ाता है। और एक बात जो विशेषज्ञों ने कही है वह यह है कि सरकारी बैंक पूंजी जमा करने में भी आगे रही है। 

सरकारी बैंकों का अस्तित्व महत्वपूर्ण है 

भारत ने आजादी के 75 वर्ष पूरे किए है और अभी भी आर्थिक नीतियों में स्थिरता नहीं आयी है। आजादी के बाद 35-40 साल भारत सरकार अपने आपको सभी नीतियों की सूत्रधार मानती रही है लेकिन 1990 दशक से कुछ भी करने से झिझक रही है। शुरू में सरकार की आर्थिक नीति सबकुछ अपने हाथ में लेकर करने की थी, जो अब सबकुछ निजी क्षेत्र के हाथों में देने की रह गई है। और यही बात भारत के भविष्य के लिए अच्छी नहीं कही जाएगी। यह विदित है कि निजी क्षेत्र स्वार्थी होता है और सब कुछ अपने फायदे के लिए करता है और यही बात ध्यान में रखकर निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। निजी क्षेत्र की विचारधारा और कार्यप्रणाली अब भी बदली नहीं है। फिर भी सरकार निजीकरण की बात कर रही है। 

सरकारी हस्तक्षेप कम हो 

सरकार ने निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण जिन कारणों से किया था वहीं कारण और वास्तविक स्थिति आज भी वैसे की वैसी है। अब भी ग्रामीण क्षेत्र विकास के लिए तरस रहा है और ऋण व्यवस्था आज भी जरूरी बदलाव ला सकती है। यह बात सही है कि सरकार ने जबसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया है, तब से बैंकों में नेता और सरकारी बाबू का हस्तक्षेप बढ़ा है और यही सरकारी बैंकों कि स्थिति खराब होने का कारण है। राष्ट्रीयकरण के  उद्देश्य स्पष्ट थे और हर बार सरकारी निर्देश की बैंकों को जरूरत नहीं थी। फिर भी सरकार की तरफ से नेतागण और बाबू आये दिन हस्तक्षेप कर रहे थे और बैंकों के लेनदेन व्यवहार को कमजोर करते थे। यही हस्तक्षेप वाली नीति बदली तो निजीकरण की बात करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। व्यवहारिक तौर पर बैंकों को स्वतंत्रता होनी आवश्यक है। किसको कर्ज दे और किसको न दे, यह बात बैंकों को तय करनी है। उसमें सरकार को कुछ कहना आवश्यक नहीं। सरकार ने अपने बजट द्वारा और अधिनियम द्वारा जो करना है वही करना चाहिए। बाकी सारा नियंत्रण और मार्गदर्शन रिज़र्व बैंक को सुपूर्त करना चाहिए तभी सरकारी बैंक ठीक से काम कर पायेंगी। 

व्यवस्थापकीय प्रबंधन ज़िम्मेवार होना भी जरूरी 

सरकारी बैंकों में सरकार से कैपिटल लेने जरूरत रहेगी, यह बात भी स्पष्ट है और सरकार ने उसकी व्यवस्था करनी चाहिए। इसके लिए निजीकरण की बात नहीं करनी चाहिए। हाँ सरकार को उद्योगपतियों ने स्वार्थ हेतू से डुबाये कर्ज की माफी हेतु प्रयास नहीं करने चाहिए। सरकार का पैसा जनता का पैसा है और जब कोई उद्योग पति कर्जा डुबाता है और सरकार उसका हर्जाना देती है तो उसका सीधा नुकसान सामान्य नागरिकों को भुगतना पड़ता है। एक तरफ तो किसान और गरीब को कर्ज माफ करने के खिलाफ आवाज चढ़ाया जाता है और दूसरी तरफ बड़े उद्योगपतियों ने डुबाया हुआ कर्जा सरकार से लेने की बात होती है। इसलिए व्यवस्थापकों की जिम्मेवारी तय होना आवश्यक है।

सरकार रिजर्व बैंक विशेषज्ञों की बात माने 

इस विषय में यह समझने की जरूरत है कि हर समस्या का समाधान निजीकरण नहीं है। सरकार को अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए जहां जरूरी हो वहाँ अपनी हिस्सेदारी बढ़ानी चाहिए और सरकारी क्षेत्र को मजबूत करते हुए अच्छे प्रबंधन का उदाहरण पेश करना चाहिए। सरकारी होने में कोई वैचारिक दोष नहीं है। व्यवस्थापकीय दोष जहां होता है उसको ठीक करने की कोशिश होनी चाहिए। आशा है सरकार रिजर्व बैंक के विशेषज्ञ की बात मानेगी और सरकारी बैंकों के निजीकारण की नीति में बदलाव लाएगी।

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