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एक विकसित राज्य से बीमारू राज्य बना पश्चिम बंगाल

भारत के अत्यंत पिछड़े हुए कुछ राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश, असम, राजस्थान, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश) को उनके नाम के पहले वर्ण को मिलाकर ‘बीमारू’ राज्य कहा जाता रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन राज्यों की प्रतिव्यक्ति आय तो कम थी ही, मानव विकास के संकेतकों की दृष्टि से भी इनकी गिनती अत्यंत पिछड़े हुए राज्यों में होती थी। समय बदला, इन राज्यों में भी आर्थिक विकास के प्रयास हुए और उनकी विकास दर भी बेहतर हो गई। उनके मानव विकास संकेतकों में भी सुधार होने लगा। इन प्रयासों के बावजूद अभी भी ये राज्य विकसित राज्यों की तुलना में काफी पीछे हैं।

नीति आयोग की ‘सतत विकास लक्ष्यों’ की रिपोर्ट के अनुसार राज्यों में केरल 75 अंकों के साथ सबसे ऊपर बना हुआ है और बिहार सबसे कम 52 अंकों के साथ सबसे नीचे है। हालांकि कई राज्य आकांक्षी (यानि 50 अंको से कम) से आगे बढ़ते हुए निष्पादक (परफार्मर) की श्रेणी में आ गए हैं, लेकिन उसके बावजूद सात राज्य अभी भी 60 अंकों से कम ही हैं, चाहे आज कोई भी राज्य 50 अंकों से कम नहीं है, यानि सभी राज्य निष्पादक या ‘फ्रंट रनर’ (जिनके अंक 65 से अधिक हैं) की श्रेणियों में पहुंच गए हैं।

हर राज्य की स्थिति अलग-अलग है, इसलिए राज्यों के कार्यनिष्पादन का राज्यवार विश्लेषण करना जरूरी है, लेकिन यदि दो राज्यों उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के कार्यनिष्पादन का विश्लेषण किया जाए तो अत्यंत रोचक तथ्य सामने आते हैं। 2019-20 में पश्चिम बंगाल की प्रतिव्यक्ति आय वार्षिक 115748 रूपए  थी, जबकि उत्तर प्रदेश की वार्षिक आय मात्र 65704 रूपए वार्षिक ही थी। यदि सतत विकास लक्ष्यों के आंकड़े देखें तो उत्तर प्रदेश 60 अंकों के साथ पश्चिम बंगाल के 62 अंकों की तुलना में थोड़ा ही पीछे था और ऐसा लगता है कि यदि उत्तर प्रदेश इसी तरह से अपना कार्यनिष्पादन बेहतर करता रहा, तो पश्चिम बंगाल को जल्द ही पछाड़ सकता है।

गौरतलब है कि 2018 में सतत विकास लक्ष्यों में पश्चिम बंगाल 56 अंकों के साथ, देश में 17वें स्थान पर था, जबकि उत्तर प्रदेश 42 अंकों के साथ सबसे निचले पायदान पर था। 2020 तक आते-आते पश्चिम बंगाल मात्र 6 अंक बढ़कर 62 अंक तक पहुंचा, जबकि उत्तर प्रदेश 18 अंकों की छलांक के साथ 22वें स्थान पर पहुंच गया। यानि जहां दो वर्षों में पश्चिम बंगाल के केवल 6 अंक बढ़े, उत्तर प्रदेश के 18 अंक के छलांग ने उसे कई अन्य राज्यों की तुलना में आगे बढ़ा दिया। 

यहां मामला मात्र पिछले दो वर्षों का नहीं है। लगातार पिछले लगभग 20-30 वर्षों में पश्चिम बंगाल विकास की दृष्टि से फिसड्डी रहा है। यदि 8वीं से 11वीं पंचवर्षीय योजना तक का सफर देखा जाए तो पता चलता है कि 9वीं पंचवर्षीय योजना को छोड़, पश्चिम बंगाल की जीडीपी ग्रोथ की दर राष्ट्रीय औसत से कम रही। पश्चिम बंगाल की जीडीपी ग्रोथ की दर कम होने का प्रमुख कारण यह है कि पिछले दो दशकों के पहले 12 वर्षों में जबकि देश की औद्योगिक विकास की दर काफी अधिक थी, पश्चिम बंगाल में औद्योगिक विकास की दर इतनी कम हो गई कि जीडीपी में औद्योगिक क्षेत्र का योगदान लगातार घटने लगा। पश्चिम बंगाल जो एक औद्योगिक राज्य था, केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन के 2004-05 श्रृंखला के अनुमानों के अनुसार उसकी जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा वर्ष 2004-05 में 11.1 प्रतिशत से घटता हुआ 2011-12 तक 9.21 प्रतिशत ही रह गया। 2011-12 की श्रृंखला में कुछ अवधारणात्मक परिवर्तनों के कारण यह हिस्सा 13.4 प्रतिशत बताया गया, लेकिन वह भी 2019-20 तक 10.6 प्रतिशत ही रह गया। यानि देखा जाए तो पश्चिम बंगाल में औद्योगिक क्षेत्र का लगातार क्षरण ही हुआ है। 

यह सर्वविदित ही है कि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में रोजगार के अधिक अवसर होते हैं। मैन्युफैक्चरिंग घटने से रोजगार के अवसर भी घटते हैं। यहां किसी तरह से भी रोजगार पाने के लिए लोग छोटे-मोटे काम-धंधों में संलग्न हो जाते हैं या आकस्मिक (कैज्युल) श्रमिक बन जाते हैं। इसकी असर यह हुआ कि जहां देश में 24.1 प्रतिशत श्रमिक आकस्मिक श्रेणी में आते थे, पश्चिम बंगाल में 29.8 प्रतिशत श्रमिक आकस्मिक श्रेणी में है। यानि कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में श्रम का आकस्मिकीकरण हुआ है। 

यदि पिछले वर्ष का हिसाब लगाया जाए तो गरीबी उन्मूलन में पश्चिम बंगाल का कार्यनिष्पादन इस कारण से प्रतिकूल रहा क्योंकि मनरेगा में मजदूरों को पहले से कम रोजगार मिला। स्वास्थ्य की दृष्टि से एक तरफ 5 वर्ष से कम आयु वर्ग वाले बच्चों की मृत्यु दर में कमी आई तो दूसरी ओर प्रसव दौरान मातृत्व मृत्यु दर में वृद्धि हो गई, हालांकि संस्थागत प्रसव का प्रतिशत बढ़ा है। शिक्षा के क्षेत्र में थोड़ी बेहतरी दिखाई देती है, लेकिन लिंग समानता में स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं दिखाई देता, बल्कि महिलाओं और पुरूषों के बीच पारिश्रमिक में अंतर पहले से ज्यादा हुआ है। कार्य के स्तर और आर्थिक विकास की दृष्टि से अत्यंत मामूली बेहतरी दिखाई देती है। पर्यावरण की दृष्टि से जहां एक ओर रसायनिक उर्वरकों का उपयोग कम हुआ है तो दूसरी ओर खतरनाक कूड़ा बढ़ा है और अन्य मानकों पर भी पर्यावरण के क्षेत्र में बेहतरी नहीं हुई।

उत्तर प्रदेश का कार्यनिष्पादन, पश्चिम बंगाल से कहीं बेहतर होने के कारण ऐसा लगता है कि केवल प्रतिव्यक्ति आय ही सतत विकास का एकमात्र मापदंड नहीं हो सकता। पश्चिम बंगाल के सरकार को देखना होगा कि सतत विकास के विभिन्न मापदंडों पर गंभीरता से विचार हो, साथ ही साथ पिछले दो दशकों से चल रही औद्योगिक क्षेत्र की दुर्गति समाप्त हो और निवेश के बेहतर अवसर उपलब्ध कराए जाएं, ताकि लोगों को बेहतर और अधिक रोजगार मिले और उनके कुशल क्षेम में वृद्धि हो। 

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