भारत जैसे देश, जहां स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही कई लोगों के लिए सुलभ नहीं हैं, ऐसे में जेनेरिक दवाएं वरदान हैं। — शिवनंदन लाल
भारत में स्वास्थ्य सेवा ऐसा क्षेत्र है, जहां लाखों लोग अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए दवाओं पर निर्भर हैं, लेकिन दवाओं के बाजार में एक बड़ा सवाल हमेशा चर्चा में रहता है कि उपभोक्ता द्वारा खरीदी जा रही दवाई सही है या नहीं। एक बड़ा मसला ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं को लेकर भी है। कुछ चिकित्सक जेनेरिक दवाओं के बारे में मरीज को जागरुक कर रहे हैं, लेकिन अधिकांश चिकित्सक अभी भी ब्रांडेड दवाओं को ही प्रमुखता दे रहे हैं। दवा के बाजार में जेनेरिक और ब्रांडेड का ऐसा घालमेल हुआ है की आम उपभोक्ता शारीरिक नुकसान के साथ-साथ आर्थिक हानि उठाने के लिए भी मजबूर हो जाता है।
अभी हाल ही में राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में सरकार ने जानकारी दी है कि दवाओ की गुणवत्ता जांचने के लिए पिछले तीन वर्षों में देश भर में दवाओं के तीन लाख से ज्यादा नमूने जांच के लिए एकत्रित किए गए, जिनमें से 9000 से अधिक दवाएं गुणवत्ता के आधार पर घटिया पाई गई। इनमें से 951 दवाएं या तो नकली थी या मिलावटी थी। इनमें सबसे ज्यादा 3104 दवाएं साल 2024-25 में मानकों पर बिल्कुल खरी नहीं उतरी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया कि दिसंबर 2022 से देश भर में दवा बनाने वाली फैक्ट्रियों की जोखिम के आधार पर निरीक्षण प्रणाली शुरू की गई है। अब तक 905 दवा निर्माण इकाइयों की जांच की गई जिनमें से 694 मामले में कंपनियों के विरुद्ध उत्पादन रोकने, लाइसेंस रद्द करने, कारण बताओ नोटिस जारी करने आदि जैसी प्रशासनिक कार्रवाई भी हुई है।
उल्लेखनीय है कि जब भी उपभोक्ता दवा खरीदने के लिए दवा की दुकान पर जाता है तो उसके दिमाग में पहली बात यही आती है कि ब्रांडेड या जेनेरिक दवाएं? ऐसे में सबसे पहले हमें इन दोनों के बीच का अंतर समझना जरूरी है। यह जानना भी जरूरी है कि कैसे फार्मास्युटिकल कंपनियां भोले-भाले ग्राहकों का शोषण कर रही हैं। यह ऐसा विषय है जिसने दर्द के व्यापार को बढ़ावा दिया है। सबसे पहले हमें समझना होगा कि ब्रांडेड या जेनेरिक दवाएं क्या हैं?
ब्रांडेड दवाएं वे होती हैं, जो किसी फार्मास्युटिकल कंपनी द्वारा अपने ब्रांड नाम के तहत बेची जाती हैं। ये दवाएं आम तौर पर महंगी होती हैं क्योंकि इनमें कंपनी की ब्रांड वैल्यू, मार्केटिंग लागत और अनुसंधान एवं विकास का खर्च शामिल होता है। दूसरी ओर, जेनेरिक दवाएं वही दवाएं होती हैं, जिनमें वही सक्रिय रासायनिक तत्व एपीआर (एक्टिव फार्मास्यूटिक इंग्रेडिएंट) होते हैं, जो ब्रांडेड दवाओं में होते हैं, लेकिन इन्हें किसी ब्रांड नाम के तहत नहीं बेचा जाता। जेनेरिक दवाएं आम तौर पर सस्ती होती हैं क्योंकि इनमें मार्केटिंग और ब्रांडिंग का खर्च नहीं होता। जैसे क्रोसिन का जेनेरिक विकल्प पैरासिटामोल है, जो उसी तरह काम करता है, लेकिन इसकी कीमत बहुत कम होती है।
भारत जैसे देश, जहां अधिकांश आबादी मध्यम और निम्न-आय वर्ग से आती है, में जेनेरिक दवाओं का महत्त्व अधिक है। भारत सरकार ने जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने के लिए ’जन औषधि योजना’ शुरू की है। इसके तहत देश भर में जन औषधि केंद्र खोले गए हैं। इन केंद्रों पर जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं की तुलना में 50-90 प्रतिशत तक सस्ती मिलती हैं। जैसे टेल्मिसार्टन, जो उच्च रक्तचाप के लिए उपयोग की जाती है, इसकी 10 गोलियों की कीमत 200-300 रुपये हो सकती है। वहीं, टेल्मिसार्टन की जेनेरिक दवा की कीमत 20-50 रुपये हो सकती है। यह अंतर गरीब और मध्यम वर्ग के मरीजों के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण है।
जानकारों के मुताबिक फार्मास्युटिकल कंपनियों की लूट का सबसे बड़ा कारण उनकी मार्केटिंग रणनीति और ब्रांडिंग है। ये कंपनियां ब्रांडेड दवाओं को बढ़ावा देने के लिए भारी मात्रा में पैसा खर्च करती हैं। डॉक्टरों को मुफ्त नमूने, विदेश यात्राएं और अन्य प्रलोभन दिए जाते हैं ताकि वे मरीजों को ब्रांडेड दवाएं लिखें। नतीजा यह होता है कि मरीज, जो ज्यादातर दवाओं की तकनीकी जानकारी से अनजान होते हैं, महंगी दवा खरीदने के लिए मजबूर हो जाते हैं। कई फार्मा कंपनियां एक ही दवा को अलग-अलग ब्रांड नाम से भी बेचती हैं, जिससे बाजार में भ्रम पैदा होता है। जैसे पैरासिटामोल को विभिन्न कंपनियां क्रोसिन, कालपोल व डोलो आदि नामों से बेचती हैं. लेकिन इन सभी में एक ही सक्रिय तत्व होता है। मरीजों को लगता है कि ब्रांडेड दवा ज्यादा प्रभावी होगी जबकि हकीकत में जेनेरिक दवा भी उतनी ही प्रभावी होती है। भारत में जेनेरिक दवाओं के प्रति कई मिथक प्रचलित हैं. जो फार्मा कंपनियों द्वारा फैलाए गए हैं। आम धारणा है कि जेनेरिक दवाएं कम गुणवत्ता वाली होती हैं। यह गलत है। भारत में जेनेरिक दवाओं का निर्माण ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 के तहत सख्त नियमों के अधीन होता है। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया सुनिश्चित करता है कि जेनेरिक दवाएं गुणवत्ता और प्रभावशीलता में ब्रांडेड दवाओं के बराबर हों। हालांकि, कुछ छोटी दवा कंपनियां, जो जेनेरिक दवाएं बनाती हैं, गुणवत्ता नियंत्रण में कमी कर सकती हैं। लेकिन यह समस्या जेनेरिक दवाओं तक सीमित नहीं है, कुछ ब्रांडेड दवाओं में भी गुणवत्ता की कमी देखी गई है। इसलिए मरीजों को विश्वसनीय जन औषधि केंद्रों या लाइसेंसप्राप्त फार्मेसी से ही दवाएं खरीदने की राय दी जाती है।
भारत सरकार ने जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। जन औषधि केंद्रों की संख्या बढ़ाने, जागरूकता अभियान चलाने और डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है। मरीजों को डॉक्टर से पूछना चाहिए कि क्या जेनेरिक दवा ब्रांडेड दवा का विकल्प हो सकती है। फार्मा कंपनियों को भी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। मुनाफा कमाना गलत नहीं है, लेकिन मरीजों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ अनैतिक है। सरकार को ऐसी नीतियां लागू करनी चाहिए जो फार्मा कंपनियों को जेनेरिक दवाओं के उत्पादन-वितरण में प्रोत्साहित करें। दवाओं की कीमतों पर सख्त नियंत्रण होना चाहिए ताकि मरीजों को उचित मूल्य पर दवाएं मिल सकें। भारत जैसे देश, जहां स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही कई लोगों के लिए सुलभ नहीं हैं, ऐसे में जेनेरिक दवाएं वरदान हैं। लेकिन फार्मा कंपनियों के लालच और भ्रामक मार्केटिंग के कारण मरीजों को अनावश्यक रूप से महंगी दवाएं खरीदनी पड़ रही हैं। यह समय है कि हम जागरूक हों, जेनेरिक दवाओं को अपनाएं और सरकार से मांग करें कि दवा बाजार में पारदर्शिता और नियंत्रण सुनिश्चित करे। जागरूकता और सही नीतियों से ही हम इस लूट को रोक सकते हैं, और हर भारतीय को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर सकते हैं।
(लेखक आकाशवाणी दिल्ली के वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी हैं)