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राहत के नाम पर आफत के आयात का मसौदा रद्द करे सरकारः किसान और खाद्य सुरक्षा के विरूद्ध हैं नीति आयोग की जीएम सिफारिशें

देश में जीएम फसलों का विरोध लंबे समय से हो रहा है। जीएम के समर्थक लगातार जीएम के पक्ष में प्रयास करते रहे हैं। हालांकि, जीएम के प्रबल विरोध और उसके ठोस तर्कों के कारण जीएम समर्थक सफल नहीं हो पाए। उनके विरोध के कई कारण हैं। - डॉ. अश्वनी महाजन

 

कुछ दिनों पहले नीति आयोग ने एक वर्किंग पेपर में भारत सरकार से सिफारिश की थी कि वर्तमान में प्रस्तावित भारत-अमेरिका व्यापार समझौते में आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) कृषि उत्पादों के आयात की अनुमति दी जानी चाहिए। इसमें नीति आयोग ने मक्का और सोयाबीन जैसी फसलों का भी विशेष रूप से जिक्र किया है। वर्किंग पेपर में यह भी सुझाव दिया गया है कि सरकार को उन कृषि उत्पादों के आयात को भी खोलने की पेशकश करनी चाहिए, जो या तो भारत में पैदा नहीं होते हैं या उनका उत्पादन इतना कम है कि उनके आयात का किसानों पर कोई खास असर नहीं होगा। इस संबंध में वर्किंग पेपर में चावल, काली मिर्च, सोयाबीन तेल, झींगा, चाय, कॉफी, डेयरी उत्पाद, पोल्ट्री, सेब, बादाम, पिस्ता आदि का उदाहरण दिया गया है, जिनके आयात को खोलने की सिफारिश की गई है।

नीति आयोग द्वारा इस वर्किंग पेपर में की गई सिफारिशों के बाद भारतीय किसान संघ (बीकेएस) समेत किसान संगठनों की ओर से तीखी प्रतिक्रियाएं आई हैं और इस संबंध में नीति आयोग की कड़ी आलोचना की गई है और कहा गया है कि ये सुझाव पूरे देश और खास तौर पर किसानों के हितों के खिलाफ हैं। मसलन, बीकेएस ने कहा है कि ये सुझाव देश और किसानों के हितों के खिलाफ हैं। बीकेएस का यह भी कहना है कि नीति आयोग ने अमेरिका के सामने घुटने टेक दिए हैं, जो कि सुखद संकेत नहीं है।

दूसरी ओर, खबर यह भी है कि भारत और अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता ठप्प पड़ गई है, क्योंकि सरकार अमेरिका की जीएम और अन्य कृषि उत्पादों के लिए बाजार खोलने की मांग मानने को तैयार नहीं है। ऐसे में नीति आयोग का यह वर्किंग पेपर सरकार के रुख को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। इसका यह भी अर्थ लगाया जा सकता है कि नीति आयोग सरकार के जीएम विरोधी रुख को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है। ये दोनों ही स्थितियां देश के लिए अच्छी नहीं हैं। पहले भी नीति आयोग ने जीएम का समर्थन किया था। यह पहली बार नहीं है कि नीति आयोग ने जीएम फसलों की वकालत की हो। इससे पहले भी प्रोफेसर अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता में आयोग ने जीएम फसलों के पक्ष में एक रिपोर्ट जारी की थी। उस समय भी इसका कड़ा विरोध हुआ था।

देश में जीएम फसलों का विरोध लंबे समय से हो रहा है। जीएम के समर्थक लगातार जीएम के पक्ष में प्रयास करते रहे हैं। हालांकि, जीएम के प्रबल विरोध और उसके ठोस तर्कों के कारण जीएम समर्थक सफल नहीं हो पाए। उनके विरोध के कई कारण हैंः

पहली वजह यह है कि ज़्यादातर जीएम फ़सलें शाकनाशी के प्रति सहनशील होती हैं। यानी जब ये फ़सलें उगाई जाती हैं, तो आस-पास की सभी जड़ी-बूटियाँ निर्धारित शाकनाशियों के इस्तेमाल से नष्ट की जा सकती हैं और जीएम फ़सलें प्रभावित नहीं होतीं। इंटरनेशनल एजेंसी फ़ॉर रिसर्च ऑन कैंसर (आईएआरसी) ने ग्लाइफ़ोसेट को “संभवतः मनुष्यों के लिए कैंसरकारी” के रूप में वर्गीकृत किया है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि जब जीएम फ़सलों के उत्पादन के दौरान इन शाकनाशियों का इस्तेमाल किया जाता है, तो उनके कुछ अवशेष उन कृषि उत्पादों और मिट्टी में रह जाते हैं, जो कैंसर का कारण बन सकते हैं। आँकड़े बताते हैं कि अमेरिका में प्रति एक लाख की आबादी पर 350 कैंसर रोगी हैं, जबकि भारत में यह आँकड़ा प्रति एक लाख पर 100 है। इसका एक कारण अमेरिका में जीएम फ़सलों में शाकनाशियों का अत्यधिक इस्तेमाल भी है।

वैसे तो भारत में जीएम खाद्य उत्पादों के इस्तेमाल और आयात पर रोक है, लेकिन खाद्य तेलों की कमी के कारण पिछले कुछ समय से अमेरिका और दूसरे देशों से खाद्य तेलों का आयात बढ़ रहा है, जिसमें से कुछ मात्रा में जीएम खाद्य तेल भी अनजाने में आयात हो रहे हैं। भारत सरकार पहले भी इस बात को स्वीकार कर चुकी है। इसके कारण भारत में कैंसर के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। जहां वर्ष 2000 में कैंसर के केवल 8 लाख मरीज थे, वहीं वर्ष 2024 तक इनकी संख्या 15 लाख तक पहुंच चुकी है। जीएम खाद्य तेलों की खपत भी इसका एक कारण हो सकता है।

जीएम फसलों के आयात के विरोध का दूसरा कारण यह है कि देश के कानून के अनुसार जीएम फसलों के उत्पादन और आयात को देश में कानूनी रूप से अनुमति नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में हमारे नियमों का सम्मान करते हुए अन्य भागीदार देशों द्वारा इस संबंध में कोई विवाद नहीं उठाया जा सकता है। डब्ल्यूटीओ के नियमों के तहत हर देश को अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए दूसरे देशों से आने वाले सामान पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार है।

अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार, अमेरिका से आने वाले जीएम उत्पादों को देश में प्रवेश करने से रोकना संभव है। चूंकि भारतीय किसान पहले से ही अपनी उपज के लिए लाभकारी मूल्य न मिलने के कारण आर्थिक नुकसान उठा रहे हैं, ऐसे में यदि सस्ते जीएम उत्पादों को आयात करने की अनुमति दी गई तो हमारे किसानों को नुकसान होगा और ऐसी स्थिति में यदि किसान खेती करना बंद कर देंगे तो देश की खाद्य सुरक्षा ही खतरे में पड़ सकती है।

तीसरा, भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) द्वारा बनाए गए खाद्य सुरक्षा नियमों के तहत जीएम उत्पादों की बिक्री संभव नहीं है, जिसके अनुसार खाद्य उत्पादों में एक सीमा से अधिक जीएम तत्व नहीं हो सकते। ऐसे में देश में जीएम उत्पादों के आयात की अनुमति देने के बाद वे भारत की खाद्य शृंखला का हिस्सा बन जाएंगे, जिससे न केवल देश के नियमों का उल्लंघन होगा, बल्कि नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए भी खतरा पैदा होगा।

उपरोक्त कारणों के अलावा, चौथा कारण, जो देश में जीएम उत्पादों के आयात के खिलाफ जाता है, वह यह है कि जिन जीएम उत्पादों के आयात की सिफारिश नीति आयोग ने की है, उनका उपभोग आमतौर पर अमेरिका में मनुष्य द्वारा नहीं किया जाता है।

अमेरिका में मक्का और सोया का इस्तेमाल ज़्यादातर या तो पशु आहार के रूप में किया जाता है या फिर इथेनॉल बनाने के लिए। गौरतलब है कि अमेरिका में 40 से 50 प्रतिशत जीएम मक्का का इस्तेमाल पशु आहार के रूप में, 30 से 40 प्रतिशत इथेनॉल बनाने में और केवल 10 प्रतिशत खाद्य प्रसंस्करण में किया जाता है। इसी तरह सोया का इस्तेमाल भी ज़्यादातर पशु आहार के रूप में किया जाता है। भारत की खाद्य शृंखला में ऐसे जीएम उत्पादों का शामिल होना न केवल देशवासियों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है बल्कि इस देश के लोगों का अपमान भी है।

यद्यपि नीति आयोग में बैठे लोगों द्वारा लगातार जीएम उत्पादों की वकालत की जाती है, लेकिन देश में किसानों और प्रबुद्ध वैज्ञानिकों द्वारा विरोध तथा इस संबंध में न्यायिक अनुमति न मिलने के कारण वे सफल नहीं हो पाते हैं। ऐसी स्थिति में, जब अमेरिका के साथ व्यापार समझौते पर बातचीत चल रही है, तथा भारत में जीएम खाद्य पर प्रतिबंध को किसानों और डेयरी के हितों की रक्षा के लिए ढाल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, नीति आयोग द्वारा ऐसी सिफारिशें किसानों, लोगों के स्वास्थ्य और देश की खाद्य सुरक्षा के प्रति उनकी उदासीनता का परिचायक है।

इसके अलावा, हमें यह समझने की जरूरत है कि भारत लगभग 50 बिलियन अमरीकी डॉलर मूल्य के कृषि खाद्य उत्पादों का निर्यात करता है, और भारतीय खाद्य का एक बड़ा आकर्षण यह है कि यह गैर-जीएम टैग वाला है।

जैसे ही जी.एम. हमारी खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करेगा, हम अपने निर्यात बाजारों का एक बड़ा हिस्सा खो सकते हैं, क्योंकि मध्य पूर्वी देश यूरोप और कई अन्य देश जी.एम. खाद्य उत्पादों के आयात की अनुमति नहीं देते हैं। शायद, नीति आयोग भारत में जी.एम. आयात और उत्पादन से जुड़े इस महत्वपूर्ण जोखिम को ध्यान में रखने में विफल रहा है।

भारत सरकार को नीति आयोग की इन सिफारिशों को नज़रअंदाज़ करते हुए जीएम खाद्य पदार्थों पर प्रतिबंध को अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों में तर्क के रूप में और व्यापार युद्ध में ढाल के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए तथा देश के किसानों, डेयरी, खाद्य सुरक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करनी चाहिए। ऐसा लगता है कि देश के अधिकांश कृषि संगठनों के विरोध के बावजूद जीएम समर्थक किसी भी कीमत पर देश में जीएम के आयात की अनुमति देना चाहते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि एक बार देश में जीएम के आयात की अनुमति मिल गई तो यह जीएमओ को कृषि में लाने का रास्ता साफ कर देगा। हमें ऐसे किसी भी प्रयास से सावधान रहने की जरूरत है।   

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