— Swadeshi Samvad
देश में गरीबों के कल्याण के लिए सरकार की ओर से कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। फिर भारत में ऐसी कोई पार्टी नहीं है, जिसने चुनावों के दौरान ’मुफ्त रेवड़ियां’ बांटने की सियासत न की हो। गत कुछ दशकों में भारत में लोकप्रियता पाने की दृष्टि से केंद्र सरकार तथा अनेक राज्य सरकारों ने मुफ्त की संस्कृति को आत्मसात् कर लिया है। निर्धन व्यक्तियों को मुफ्त में गेहूं या चावल देना, गरीब ग्रामीणों को मुफ्त आवास देना, एक सीमा तक मुफ्त बिजली या पानी देना अथवा मुफ्त चिकित्सा उपलब्ध कराने की संस्कृति देश के अंदर विकसित हुई है। इस संस्कृति को सभी राजनीतिक दलों ने अपना लिया है। इन दलों को लगता है कि विधानसभा तथा लोकसभा के चुनाव में उनकी सफलता इसी पर निर्भर करती है कि वे कितनी वस्तुओं तथा सेवाओं को मुफ्त में बांट सकते हैं। सेवाओं, वस्तुओं के निशुल्क वितरण के फलस्वरूप केंद्र सरकार तथा संबद्ध राज्य सरकारों को भले ही लोकप्रियता प्राप्त हो जाए, पर उन्हें वित्तीय भार जिस रूप में वहन करना पड़ता है, उसकी पूर्ति दीर्घकाल तक भी नहीं हो पाती। वास्तविकता यह भी है कि राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों पर कर्ज का भार काफी होने पर भी वे राजनीतिक दबाव के कारण इस तरह की योजनाओं का सहारा ले रहे हैं।
वर्तमान में बिहार विधानसभा का चुनाव हो रहा है। सभी राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की ऐसी ऐसी घोषणाएं कर रहे हैं जिसका पूरा होना पहले से ही संदेहास्पद और हास्यास्पद तो है ही, कामकाजी जनता को अकर्मण्य बनाने का आह्वान जैसा भी है।
बिहार विधानसभा चुनाव के महासागर में दोनों प्रमुख गठबंधनों एनडीए और इंडिया महागठबंधन ने अपने-अपने घोषणा पत्रों के जरिए जनता को लुभाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। महागठबंधन ने सरकारी नौकरी की गारंटी और कर्मचारियों के अस्थाई करने को केंद्र में रखकर तेजस्वी प्रण प्रस्तुत किया है, तो सट्टा रोड एनडीए ने पंचामृत गारंटी के तहत गरीबों को मुफ्त राशन 125 यूनिट मुफ्त बिजली, पांच लाख रूपये तक का मुफ्त इलाज, 50 लाख नए मकान, सामाजिक सुरक्षा पेंशन के साथ-साथ एक करोड़ सरकारी नौकरी, एक करोड़ महिलाओं को लखपति दीदी, आतिश पिछड़ा वर्ग को नगद 10 लाख रुपए देने, के.जी. से पी.जी. तक मुफ्त शिक्षा के साथ-साथ बड़े बजट से लैस कर्पूरी ठाकुर किसान सम्मान निधि शुरू करने की घोषणा की है। दोनों ही गठबंधनों के घोषणा पत्र में वोट जुगाड़ की राजनीति सिर चढ़कर बोल रही है। सरकारी खजाने से मुफ्त की रेवड़ी बांटने में कोई किसी से कम नहीं है।
यह ठीक है कि अर्थव्यवस्था, राजकोषीय घाटा, जीडीपी और कर-संग्रह बेहद महत्त्वपूर्ण कारक हैं, लेकिन उनके मद्देनजर कोई भी सरकार जनता को गरीबी और भुखमरी की तरफ नहीं धकेल सकती। नरेन्द्र मोदी सरकार कोरोना काल के दौरान मार्च, 2020 से 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज लगातार बांट रही है। देश में खाद्य सुरक्षा का कानून है। फिर भी प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत गरीबों को प्रति व्यक्ति 5 किलो खाद्यान्न मुफ्त दिया जा रहा है। इस योजना पर केंद्र सरकार ने भारी भरकम रकम खर्च किए हैं। आयुष्मान भारत, उज्ज्वला गैस योजना, पक्के घर, नल में जल, शौचालय, किसान सम्मान राशि आदि योजनाएं लगभग निशुल्क हैं। कहने वाले इन्हें भी ’मुफ्त ’रेवड़ी’ की श्रेणी में रख सकते हैं। लेकिन उन्हें ’रेवड़ियां’ नहीं माना जा सकता, क्योंकि वे राष्ट्रीय स्तर पर, हर राज्य और हर पात्र नागरिक को, मुहैया कराई जा रही हैं। देश में 6-14 साल के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा भी मुफ्त है। हालांकि शीर्ष अधिकारियों ने प्रधानमंत्री मोदी को सलाह दी थी कि ’मुफ्त अनाज’ वाली योजना जारी न रखी जाए, क्योंकि उससे हजारों करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। अर्थव्यवस्था असंतुलित भी हो सकती है, लेकिन कोरोना महामारी के दुष्प्रभावों के मद्देनजर प्रधानमंत्री ने योजना को जारी रखने का फैसला किया। मकसद था कि इस दौर में देश का कोई भी नागरिक भूखा नहीं सोना चाहिए।
साफ है, यदि आम नागरिक की जिंदगी, आजीविका, अस्तित्व से जुड़ी कोई परियोजना है, और उसे सरकार निशुल्क ही मुहैया करा रही है, तो उसे ’रेवड़ी’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। भारत एक सामाजिक कल्याण की सोच वाला देश है। लोकतंत्र है, जनता के प्रति सरकार के दायित्व हैं। दरअसल, ’मुफ्त रेवड़ियों’ में निशुल्क बिजली-पानी, इलाज, टीवी, साइकिल, लैपटॉप, स्मार्ट फोन, बाइक, साड़ी, मंगल सूत्र, वाशिंग मशीन, प्रेशर कुकर, मुफ्त परिवहन आदि को गिना जा सकता है, जो विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव के मौके पर परोसते हैं, जिसके कारण राज्यों की वित्तीय स्थिति दयनीय होती जा रही है। इनमें असम, बिहार, पंजाब, कर्नाटक, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, प. बंगाल, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य प्रमुख हैं। इन राज्यों ने ऋण का भार अधिक होने पर भी लोकप्रिय बनने के लिए अरबों रुपये मुफ्त योजनाओं पर खर्च किए हैं। सवाल है कि ऐसी मुफ्तखोरी से जन-कल्याण कैसे होगा? राज्य ही ’दिवालिया’ होने के कगार पर आ जाएंगे। सर्वोच्च अदालत ने भी ’रेवड़ियों’ की सियासत पर अपनी चिंता और सरोकार जताए हैं, लेकिन फिलहाल दखल देने से इंकार कर दिया है। ’रेवड़ियों’ की संस्कृति ज्यादातर दक्षिण भारत के राज्यों में दिखी है। लेकिन अब उत्तर भारत के चुनावों में भी इसकी झलक दिखाई देने लगी है।
दरअसल, फ्री की रेवड़ियां, जन कल्याणकारी योजनाओं और लोक लुभावन नीतियों के बीच एक पतली-सी लकीर है। दूसरी तरफ पारदर्शिता या जवाबदेही की कमी, जन-केंद्रित नीतियों के अभाव, सामुदायिक भागीदारी का न होना और ईमानदारी से समीक्षा या निगरानी न किए जाने के कारण कल्याणकारी योजनाएं देश में कारगर ढंग से लागू नहीं हो पा रही हैं। जिस तरह से योजनाएं बनाई जाती हैं, उनके पीछे सरकार का इरादा क्या है, और इन्हें लागू करने में वह कितनी गंभीर है, इसकी पड़ताल जरूर होनी चाहिए। अधिकतर योजनाएं चुनाव के दौरान लोगों को खुश करने के लिए घोषित की जाती हैं, लेकिन उनके लिए वित्तीय आवंटन निहायत नाकाफी रहता है, जिससे योजना सफल होने से पहले ही दम तोड़ देती है। चाहे केंद्र सरकार हो अथवा राज्य सरकारें, जनकल्याण की योजनाओं के लिए साधन आवंटित करते समय इस बात पर फोकस जरूर करना चाहिए कि संबद्ध जनसमूह को मदद की जरूरत है भी कि नहीं। यह भी देखना अपरिहार्य है कि कम से कम कितनी राशि उपयुक्त रहेगी। भारत में केंद्र और राज्य सरकारें आज पूर्ति आधारित नीति पर चल रही हैं। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार की किसान सम्मान निधि की अनुपालना में प्रत्येक किसान परिवार को छह हजार रुपये किस प्रयोजन से दिए जा रहे हैं तथा किसान इसका किस प्रकार से उपयोग कर रहा है, देश को इसकी जानकारी नहीं है। प्रति वर्ष करोड़ों रुपये व्यय करने के बाद भी सीमांत और लघु कृषकों की आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ, यह चिंता की बात है।
देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों के मतानुसार मुफ्त में सामान, सेवा या मुद्रा देना एक प्रकार का वायरस है। राजनीतिक दलों को इस बात की भी परवाह नहीं है कि इससे बैंकिंग व्यवस्था किस प्रकार से प्रभावित होगी। भारत की जनता को भी समझना होगा कि खुशहाली मुफ्तखोरी में नहीं, आत्मनिर्भर बनने में है। और यह भी तय है कि भारत जैसे देश में खुशहाली स्वदेशी और स्वावलंबन से ही आएगी।