इस्लामाबाद को पानी चाहिए तो उसे आतंकियों को समर्थन देने की नीति छोड़नी होगी। पानी और आतंकवाद साथ-साथ नहीं बह सकता है। - डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्र
सिंधु जल संधि पर भारत का सख्त रवैया पाकिस्तान के लिए साफ संदेश है कि अब सीमा पार आतंकवाद पर गोलमोल बातें नहीं चलेंगी। इस्लामाबाद को पानी चाहिए तो उसे आतंकियों को समर्थन देने की नीति छोड़नी होगी। पानी और आतंकवाद साथ-साथ नहीं बह सकता।
मालूम हो कि 22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में 26 पर्यटकों की पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों की ओर से हत्या के बाद भारत ने पड़ोसी देश के खिलाफ कई कदम उठाए थे। इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण कदम के तहत सिंधु जल समझौते को सस्पेंड किया गया था।
उल्लेखनीय है कि 1965, 1971 और वर्ष 1999 के करगिल युद्ध के दौरान भी सिंधु जल समझौता जारी रहा था। पाकिस्तान को भ्रम हो गया था कि उसकी तरफ से उकसावे की चाहे जितनी भी कार्रवाई हों, पानी तो मिलता रहेगा। लेकिन, पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने नई दिल्ली के सब्र का बांध तोड़ दिया। बॉर्डर पर समझौते के बाद पाकिस्तान चाहता है कि सिंधु जल संधि भी बहाल हो जाए, पर विदेश मंत्री जयशंकर ने बिल्कुल सही कहा है कि पहले सीमा पार आतंकवाद को समर्थन देना बंद करना होगा।
वैसे भी बात इस संधि को निलंबित रखने या बहाल करने भर की नहीं है, वक्त है इसे पूरी तरह रिव्यू करने का। दोनों देशों के बीच 1960 में यह समझौता हुआ था। भारत ने मानवता दिखाते हुए पाकिस्तान के पक्ष में ज्यादा पानी की बात मान ली थी। सिंधु का 70 प्रतिशत पानी पाकिस्तान को मिलता है और उसकी 80 प्रतिशत खेती व करीब एक तिहाई हाइड्रो पावर प्रॉजेक्ट इसी पर निर्भर हैं।
1960 से अब तक हालात काफी बदल चुके हैं। आज दुनिया के सामने जलवायु परिवर्तन की चुनौती है। भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। पानी और ऊर्जा की उसकी अपनी जरूरतें हैं। पुराने समझौतों के आधार पर ट्रीटी जारी रखना न तो संभव होगा और न सही ही।
संधि में कोई भी बदलाव आपसी रजामंदी से ही किया जा सकता है। इसी वजह से भारत ने पहले भी प्रस्ताव रखा था कि संधि पर नए सिरे से बात की जाए, पर पाकिस्तान मानने को तैयार नहीं हुआ। उल्टे वह जम्मू-कश्मीर की किशनगंगा और रतले जल विद्युत परियोजनाओं पर एतराज जताता रहा है। वह इस मामले को कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन में ले जा चुका है।
पाकिस्तान की मांग एकतरफा है। वह चाहता है कि सिंधु में पानी बहता रहे, लेकिन न तो जल के उचित बंटवारे पर बात हो और न आतंकवाद पर उसे कोई आवश्यक कार्रवाई करनी पड़े। उसने शिमला समझौता समेत दूसरे द्विपक्षीय समझौतों को न मानने की भी धमकी दी है। उसके अड़ियल रवैये से तनाव बढ़ेगा ही और नुकसान भी उसे ही ज्यादा होगा।
अब जबकि भारत और पाकिस्तान युद्धविराम पर सहमत हो गए हैं, लेकिन भारत ने दो टूक शब्दों में यह संदेश दिया है कि सिंधु जल समझौता सस्पेंड रहेगा।
आजादी के बाद कई ऐसे मौके आए जब सिंधु जल के बंटवारे को लेकर दोनों देशों के बीच लंबे समय तक विवाद चला। आखिरकार, 1960 में वर्ल्ड बैंक की मध्यस्थता में सिंधु जल समझौता हुआ। उसके बाद से अब तक दोनों देशों के बीच जो भी युद्ध हुए, उसमें भी इस सधि पर आंच नहीं आई थी। लेकिन इस बार भारत सरकार कोई भी लचीला रुख अपनाने के लिए तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने मन की बात कार्यक्रम में इसका खुला संकेत दिया कि खून और पानी एक साथ नहीं बह सकता।
1960 में हुए सिंधु जल समझौते की अहमियत, इसे लेकर दोनों देशों के बीच चले विवाद, इस विवाद की जड़ और राजनीतिक-कानूनी पहलुओं को समझकर ही अब आगे बढ़ना चाहिए।
हिमालय से निकलने वाली यह नदी भारत में जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान में प्रवाहित होते हुए अरब सागर में मिल जाती है। 65 साल पहले हुए सिंधु जल समझौते को दुनिया की सबसे कामयाब संधियों में शामिल किया जाता है।
सिंधु नदी बेसिन एक बड़ी नदी प्रणाली है जो तिब्बत से निकलकर भारत-पाकिस्तान अफगानिस्तान और चीन में बहती है। यह लगभग 11 लाख 65 हजार 500 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र से होकर बहती है। सिंधु नदी की सहायक नदियों में झेलम, चिनाब, रावी, व्यास और सतलज के साथ-साथ गिलगिट काबुल, स्वात, खुर्रम, टोची, गोमल, संकर, नुब्रा और श्योक भी शामिल है।
आजादी के बाद से ही इसे लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद था। इसे खत्म कराने के लिए वर्ल्ड बैंक की मध्यस्थता में 19 सितंबर 1960 को भारत एवं पाकिस्तान के बीच कराची में सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर किए गए। इसमें निर्धारित किया गया कि सिंधु नदी प्रणाली की 6 नदियों का जल भारत एवं पाकिस्तान के बीच किस प्रकार विभाजित किया जाएगा। इसमें तीन पश्चिमी नदियों सिंधु, चेनाब तथा झेलम को भारत द्वारा कुछ गैर उपभोग कृषि एवं घरेलू उपयोगों को छोड़कर अप्रतिबंधित उपयोग के लिए पाकिस्तान को आवंटित किया गया तथा तीन पूर्वी नदियों रावी, व्यास एवं सतलज को अप्रतिबंधित उपयोग के लिए भारत को आवंटित किया गया। इसका अर्थ यह है कि 80 प्रतिशत जल पाकिस्तान को चला गया जबकि शेष 20 प्रतिशत जल भारत के उपयोग के लिए रहेगा। इसके लिए दोनों देशों को एक अस्थाई सिंधु आयोग के गठन का प्रावधान था जिसकी वार्षिक बैठक अनिवार्य बनाई गई थी।
समझौते के कुछ साल बाद ही इस पर सवाल उठने लगे थे। इस समझौते के रिव्यू के लिए भारत में जोरदार मांग हुई। यह भी पूछा जाने लगा कि 1960 में किस वजह से भारत ने विवाद को खत्म करने के लिए वर्ल्ड बैंक की मध्यस्थता स्वीकार की? यह भी कि वैश्विक वित्तीय संस्थान की मदद लेने को पाकिस्तान क्यों राजी हुआ? सवाल यह भी है कि वर्ल्ड बैंक के मध्यस्थता की प्रक्रिया में शामिल होने का कारण क्या था?
जानकार बताते हैं कि भारत और पाकिस्तान ने तत्कालीन राजनीतिक वजहों से वर्ल्ड बैंक की मध्यस्थता मंजूर की थी। और यह भी कि वर्ल्ड बैंक ने पाकिस्तान को इस समझौते को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया। इस सधि के तहत सिंधु आयोग बनाया गया, जिसका इसे लागू करने में बड़ा योगदान रहा है। संधि होने के बाद पूर्व में दोनों देशों के बीच पांच बड़े विवाद हुए जिसे सुलझाने में दोनों पक्ष कामयाब रहे। सिंधु आयोग की भी विवादों को सुलझाने में बड़ी भूमिका रही है।
लेकिन आज वर्ष 2025 में जब हम इस समझौते की ओर नजर डालते हैं तो सबसे बड़ी जरूरत जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों के आकलन की है। जब समझौता हुआ था, तब दुनिया को जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली दुश्वारियों का ख्याल दूर-दूर तक नहीं था, जबकि आज यह बड़े संकट के रूप में उभरा है। भारत और पाकिस्तान में पिछले कुछ वर्षों में इसी वजह से एक्स्ट्रीम वेदर पैटर्न दिख रहा है, जिससे बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान भी हुआ है।
भारत इस पानी का अधिकांश हिस्सा पाकिस्तान को दिया लेकिन उसके साथ जल संधि को लेकर नाराजगी का इजहार करता आया है। उसे लगता है कि समझौते में ज्यादातर इंसाफ नहीं हुआ। 2023 में भारत ने पाकिस्तान से इसमें संशोधन के लिए कहा था, लेकिन बात नहीं बनी। अब जबकि भारत ने सधि को सस्पेंड कर दिया है तो इस बारे में आने वाले वक्त में दोनों देशों के बीच जरूर बात होनी चाहिए और तब भारत की सरकार इसमें तब्दीली का मुद्दा जोर शोर से उठा सकती है। सरकार समझौते को एकतरफा साबित करते हुए कम से कम बराबरी का हिस्सा यानी 50 प्रतिशत पानी अपने लिए सुरक्षित कर सकती है। पहलगाम की घटना के बाद सरकार ने समझौते को स्थगित करके इसका संकेत दिया है कि भारत पूर्व के फैसलों से संतुष्ट नहीं है।