जरूरी है कि भारत अपनी आर्थिक नीतियाँ भारतीय विचार और भारतीय परिपेक्ष्य में निर्धारित करें और राजनीति को आर्थिक नीतियों पर हावी न होने दे। - अनिल जवलेकर
भारत की आर्थिक नीतियों की चर्चा हमेशा से होती रही है। यह बात सही है कि एक जमाने में भारत सोने की चिड़िया कहलाता था, लेकिन स्वतंत्रता के पहले कई शतकों तक यह देश लूटता रहा और अंग्रेज़ तो इस देश को कंगाल और ‘भीखमंगा’ करके ही गए। स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय आर्थिक नीतियां घोषित उद्देश्यों के प्रति स्थिर नहीं रही और इसका मुख्य कारण यह है कि भारतीय नेतृत्व और यहाँ के नीतिकारों ने सारी नीतियां बाहर से उधार ली है और उसे भारतीयों पर थोपने का काम किया है। बाहरी नीतियां उपयुक्त नहीं रही ऐसा नहीं है। पाश्चात्य दृष्टि से वे उपयोगी रही है, यही कह सकते है, लेकिन इस देश की समस्याओं का हल वे नहीं ढूंढ पाई, यह हकीकत समझना भी जरूरी है।
भारतीय आर्थिक नीतियों की शुरुवात रशियन मॉडल से
स्वतंत्रता के बाद पंडित नेहरू प्रधानमंत्री बने और उन्होंने केंद्रीय योजना के तहत केंद्रीय मार्गदर्शन और सहायता से अर्थव्यवस्था के मुख्य प्रभावशाली क्षेत्र का विकास सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा करंने की नीति बनाई। इस नीति का आधार रशियन साम्यवादी मॉडल था, यह कहने की ज़रूरत नहीं है। जो कुछ करेगी वह सरकार करेगी यह इस नीति का मुख्य अंग था। इस के तहत संसाधनों को सरकार द्वारा विशिष्ट क्षेत्र की ओर मोड़ा गया। निश्चित ही संसाधनों की कमी थी इसलिए अंतरराष्ट्रीय संस्था जैसे वर्ल्ड बैंक वगैरह से कर्ज लेकर ही इस मॉडल ने काम किया। मूलभूत उद्योग से जो सुविधाएं या इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा होगा उससे विकास निचले स्तर पर टपकेगा और निजी पूंजी द्वारा निचले उद्योग विकसित होने की बात सही साबित नहीं हुई। सरकारी बाबुओं की मनमानी चली और उसके परिणामस्वरूप भारत आर्थिक विकास की समस्याओं से जुझता रहा और इस दौरान पिछड़े देशों की सूची में ही शामिल रहा।
गरीबी हटाओ जैसे कार्यक्रमों का दौर
आर्थिक नीति का दूसरा मॉडल श्रीमती इंदिरा गांधी के जमाने में शुरू हुआ। वे जब प्रधानमंत्री बनी तो पिछड़ापन के साथ-साथ गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी की समस्याएँ देश को घेरे हुई थी। भारत अमरीका के गेहूँ पर ही जी रहा था। पिछड़े लोग और पिछड़ा क्षेत्र पीछे ही छूटता जा रहा था और उसे आर्थिक मदद की जरूरत थी। इसलिए प्राथमिक क्षेत्र को नए तरीक़े से घोषित किया गया और इस क्षेत्र में आर्थिक मदद बढ़े इसलिए प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। ‘गरीबी हटाओ’ की घोषणा कर आर्थिक पिछड़े क्षेत्र और पिछड़े लोगों के लिए कर्ज और सब्सिडी की व्यवस्था की गई। कर्ज-मेले लगने लगे जिससे आगे चलकर बैंकों के आर्थिक क्षमता पर असर हुआ। कर्ज डूबने की समस्या आयी और बैंकों को ही मदद की जरूरत पड़ने लगी। गरीबी तो हटी नहीं उससे भारतीय वित्तीय व्यवस्था बिगड़ने लगी। यह मॉडल भी विदेशी विचारों से ही प्रेरित था।
आर्थिक सुधारों का दौर
1990 तक चले इन दो मॉडलों ने देश की कंगाली बढ़ाई और देश आर्थिक दृष्टि से डूबने की कगार पर आ पहुंचा। ‘करेगी तो सिर्फ सरकार’ की नीति का अपयश इसका मुख्य कारण था और उसे बदलना मजबूरी हो गई। इसी समय दुनिया के विकसित देश जागतिकरण और खुली अर्थव्यवस्था स्वीकारने पर ज़ोर डाल रहे थे और भारत को भी इसको स्वीकारना पड़ा। यह नरसिंहराव-मनमोहन सिंह का दौर था। सब कुछ सरकार करेगी, को भूलकर सब कुछ निजी क्षेत्र पर छोड़ने की नीतियाँ बनने लगी। परिणामस्वरूप निजी उद्योग सांस लेने लगे और बाबूगिरी कम हुई। आर्थिक विकास दर बढ़ा और भारत विकास की ओर मुड़ा।
स्वयंसेवी संस्था द्वारा विकास का प्रयास
ऊपरी तीनों मॉडल से गरीबी और बेरोजगारी समस्या हट नहीं रही थी और सरकार ग्रामीण पिछड़ापन को समाप्त करने में नाकामयाब हो रही थी। इसलिए एक तीसरा मॉडल आजमाया गया जिसके द्वारा विकास प्रक्रिया में स्वयंसेवी सेवा संघटनों की सहायता ली जानी थी। सेल्फ हेल्प ग्रुप तथा अन्य एनजीओ के प्रभाव का यह दौर था। इनके द्वारा कर्ज और अनुदान पर आधारित व्यवस्था कायम करने की कोशिश की गई। ग्रामीण क्षेत्रों के ग़रीब उसमें भी महिला का सहयोग इसमें उपयुक्त रहा। यह मॉडल कुछ हद तक सफल रहा और ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को सक्षम बनाने में कामयाब रहा। फिर भी पिछड़ापन, गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्या कम नहीं हुई।
विदेशी पूंजी, विदेशी व्यापार और तंत्रज्ञान
जागतिकरण तथा खुली अर्थव्यवस्था ने विकास की नैया आज निजी क्षेत्र के हाथ में सौंप दी है। इस नीति में विदेश पूंजी, विदेशी व्यापार और तंत्र ज्ञान विकास और उसका उपयोग महत्वपूर्ण माना जाने लगा है। आज दुनिया इसी मॉडल के तहत आर्थिक नीतियाँ बना रही है। भारत ने भी इसे अपनाया है। यह सही है कि भारत आत्मनिर्भरता की बात करता है और इसे प्रोत्साहित करने हेतु कुछ कार्यक्रम अमल में लाये जा रहे है। लेकिन विदेशी पूंजी भारत में आए और भारत का विदेशी व्यापार बढ़े इसके लिए भी नीतियाँ अपनाई जा रही है। यहाँ तक कि रुपए को भी अंतरराष्ट्रीय चलन के रूप में पेश करने की कोशिशें हो रही है। भारत ने नया तंत्र ज्ञान अपनाया है और भारत शासकीय तथा आर्थिक व्यवस्था डिजिटल करने में सबसे आगे है।
भारत की आर्थिक नीतियों कि दिशा
भारत स्वतंत्र हुए 75 वर्ष बीत चुके है और आज भारत अपनी आर्थिक नीतियों से ‘विकसित भारत’ का सपना देख रहा है। निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि भारत गत 75 वर्षों में अपनी ‘भीख मंगा’ देश होने की पहचान मिटा चुका है और अपने को एक समर्थ और प्रभावशाली देश प्रस्थापित करने में कामयाब हुआ है तथा अब विकसित देश बनने की ओर अग्रसर है। इस प्रगति में सबसे ज्यादा भूमिका भारत के कृषि क्षेत्र ने निभाई है क्योंकि इसी क्षेत्र ने भारत को अन्न में आत्मनिर्भर बनाया है। आज कृषि क्षेत्र विदेशी व्यापार में भारत को विदेशी चलन के प्राप्ति में भी मदद कर रहा है। भारत के शिक्षित युवाओं ने तो दुनिया भर में अपनी पहचान बनाई है और तंत्र ज्ञान में कुशलता हासिल की है। सेवा क्षेत्र भारत का मुख्य क्षेत्र इसी कारण बना हुआ है। यह भी कहा जा सकता है कि भारत की आर्थिक सुधार की नीति कामयाब रही है और भारत के निजी क्षेत्र ने अपेक्षित भूमिका निभाई है। एनजीओ और स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी आर्थिक विकास को ग्रामीण क्षेत्र और ग्रामीण महिलाओं तक पहुंचाया है। इसलिए यह स्पष्ट है कि भारत आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो रहा है।
भारत की आर्थिक दशा
भारतीय आर्थिक नीतियों ने भारत को पाश्चात्य विचार दृष्टि से प्रगतिशील देश बनाया है। लेकिन इस प्रगति के बावजूद भारत की आर्थिक दशा बहुत अच्छी नहीं रही। अभी भी भारत एक अन्न-धान्य के सिवाय बहुत से क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं है और अपनी कई महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ पा रहा है। भारत के शिक्षित बेरोजगारों की समस्या इसमें मुख्य मानी जा सकती है जो की पाश्चात्य शिक्षण विचार स्वीकारने का परिणाम है। अर्थ व्यवस्था में ‘उत्पादन क्षेत्र’का कम होता हिस्सा भी इसका कारण बताया जाता है जो पाश्चात्य आर्थिक व्यापार विचारों का परिणाम कहा जा सकता है। कृषि क्षेत्र में भी समस्याओं की कमी नहीं है। यह भुला नहीं जा सकता की पर्यावरणीय बदलाव कभी भी कृषि उत्पादन कम कर सकते है। किसान भी उनको मिलने वाली उत्पादनआय से खुश नहीं है और आए दिन आंदोलित रहते है। इसका भी कारण भारत की कृषि नीतियाँ पाश्चात्य विचार और विदेशी तंत्रज्ञान पर आधारित है यह है। सबसे ध्यान देने की बात यह है कि भारतीय राजनीति बाहरी ताकतों से मिलकर आर्थिक व्यवस्था को कमजोर करने में लगी हुई दिखती है और यही भारत की आर्थिक दशा को खराब कर सकती है। इसलिए यह जरूरी है कि भारत अपनी आर्थिक नीतियाँ भारतीय विचार और भारतीय परिपेक्ष्य में निर्धारित करें और राजनीति को आर्थिक नीतियों पर हावी न होने दे।