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डालर के मुकाबले रुपए में गिरावट की मुद्रा

दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए बड़े और सधे हुए आर्थिक कदम उठाने की जरूरत है। जाहिर है कि तब रूपया भी उठेगा और देश का नाम बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में शुमार होगा। - अनिल तिवारी

 

अंतर बैंक विदेशी मुद्रा बाजार में रूपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले तीसरी कारोबारी सत्र में कमजोर रहा और लगातार गिरते हुए 85.27 (अस्थाई) प्रति डॉलर  के नए सर्वकालिक निचले स्तर पर बंद हुआ। डॉलर में मजबूती और कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों के कारण रुपए को लेकर धारणा कमजोर हुई है। विदेशी मुद्रा कारोबार के जानकारों का मानना है कि आयातकों की ओर से डॉलर की मांग में वृद्धि तथा डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन द्वारा आक्रामक आयात शुल्क लगाने की आशंका से अमेरिकी मुद्रा डॉलर में तेजी आई है फलतः रूपया नीचे की ओर जा रहा है।

19वीं सदी के आखिर में अपने प्रसिद्ध नाटक ‘दी इंर्पोटेंस आफ बीइंग अर्नेस्ट’ में ऑस्कर वाइल्ड ने भारतीय रुपए के मुंह के बल गिरने का जिक्र किया था। खेद का विषय है कि उसके एक सदी से ज्यादा का समय बीतने के बाद भी रूपए के मूल्य की ताजा तरीन गिरावट कमोवेश वैसी ही है जैसी वाइल्ड के जमाने में रही होगी। 24 दिसंबर 2024 को बाजार में एक डालर का मूल्य और 12 पैसे लुढ़ककर 85.27 रुपए हो गया। यह सर्वकालिक निचला स्तर है। इससे पहले 12 जुलाई 2011 को विनिमय बाजार में एक डालर का मूल्य 44 रूपये था। अगस्त 2013 में यह विनिमय मूल्य 63 रुपए का था। 6 दिसंबर 2021 को रुपए और डॉलर का विनिमय दर 75.30 रुपए प्रति डॉलर थी जो 25 अप्रैल 2022 को और गिरकर 76.74 और 12 जून 2022 को 78.20 रुपए प्रति डॉलर तक पहुंच गई।

रुपए में अब तक की सबसे बड़ी गिरावट के बारे में बताया जा रहा है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व के अपनी नीतियों में बदलाव की वजह से ऐसा हुआ है। कोरोना के बाद दुनिया के तमाम देश मंदी की चपेट में आ गए थे। उस महामारी से उबरने के लिए सभी ने अपने-अपने तरीके से उपाय किए। अमेरिकी फेडरल ने अपनी ब्याज दरों में कटौती कर उसे 4.3 प्रतिशत पर ला दिया है। इस तरह डॉलर की स्थिति मजबूत हुई है। फिर जब से राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की विजय हुई है निवेशकों को लगने लगा है कि वहां निवेश करना सबसे अधिक फायदेमंद है। इसलिए बहुत सारे निवेशकां ने भारत से अपने पैसे निकालकर अमेरिका का रुख कर लिया है। इस कारण विदेशी मुद्रा भंडार में छीजन दर्ज होनी शुरू हो गई है। पिछले कुछ समय तक डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट लगभग रुकी हुई थी। दो साल पहले तो रूपया धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ने भी लगा था। तब विशेषज्ञों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि सरकार विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर की निकासी करके रुपए की कीमत को रोक रही है। अगर विशेषज्ञों की बात सही है तो फिर अप्रत्याशित गिरावट कैसे और क्यों हो रही है? संभव है कि अब वह तरीका शायद काम नहीं आ रहा है।

डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट का असर बाजार, पर्यटन, शिक्षा आदि पर सीधे और अधिक पड़ता है। भारत अपनी जरूरत का अधिकतर ईंधन, तेल दूसरे देशों से खरीदता है। ऐसे में जब भी कच्चे तेल की कीमत बढ़ती है तो सरकार का खर्च बढ़ जाता है। इसके अलावा दवाइयों के लिए कच्चा माल, खाद्य तेल, इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान आदि के लिए भी भारत अन्य दूसरे देशों पर निर्भर है। विदेश पढ़ने गए विद्यार्थियों और पर्यटकों की जेब पर भी बोझ बढ़ जाता है। इसलिए भी रुपए की कीमत का गिरना चिंताजनक होता है। रुपए की कीमत गिरने की कुछ वजह शीशे की तरह साफ है। व्यापार घाटा बढ़ता है तो डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत घट जाती है। हालांकि वर्षों से निर्यात बढ़ाने पर सरकार की ओर से जोर दिया जा रहा है और प्रयास भी किया जा रहे हैं। घरेलू बाजार और स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए हर स्तर पर हर संभव कोशिश की जा रही है। मगर हकीकत यह है कि निर्यात में लगातार कमी देखी जा रही है। व्यापार घाटा पाटने के लिए कई एक विदेशी वस्तुओं के आयात पर रोक लगाने और देसी स्वदेशी वस्तुओं को प्रश्रय देने की कोशिश की गई, इसका कुछ असर भी कई  एक क्षेत्र में देखने को मिला लेकिन फिर भी हमारा व्यापार घाटा कम होने के बजाय लगातार बढ़ता ही जा रहा है। खासकर चीन के साथ घाटे का आंकड़ा आसमान छू रहा है।

महंगाई पर काबू पाने के मकसद से रिजर्व बैंक ने लगातार रेपो रेट को ऊंचा बनाए रखा है लेकिन स्थिति यह है कि बाजार में पूंजी का अपेक्षित प्रवाह नहीं बन पा रहा है। दूसरी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोगों की आमदनी में कोई बढ़ोतरी नहीं हो पा रही है। इन स्थितियों का असर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर पड़ता है। जैसे ही बाहरी निवेशकां को यह लगने लगता है कि किसी देश में उपभोक्ता व्यय घट रहा है तो वे उस देश में निवेश करने से बचते हैं। पिछले कुछ समय से हमारी विकास दर और उसमें भी विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति संतोषजनक नहीं है, बल्कि कहे तो नकारात्मक की ओर जा रही है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि डॉलर की आवाक कम हुई है। इस स्थिति में रुपए की कीमत में गिरावट लाजमी है। रुपए की कीमत गिर भी रही है। इससे उत्पन्न होने वाले संकटों और अर्थव्यवस्था के संचालन को लेकर चिंता का बढ़ना स्वाभाविक है। प्रश्न यह है कि सरकार अर्थव्यवस्था को 5 लाख करोड डालर तक ले जाने को संकल्पित है मगर रुपए की गिरावट का रुख देखते हुए इस पर आसानी से भरोसा नहीं बन पाता। ऐसे में एक प्रश्न यह है कि क्या भविष्य में रुपए का धीरे-धीरे अवमूल्यन संभव है अथवा रुपए को मजबूत करने की रणनीति बनाना असंभव है? पिछले काफी समय से सरकारों द्वारा मुक्त व्यापार की नीति अपनाई गई है और यह प्रयास हुआ है कि कम से कम आयात शुल्कों पर आयात की अनुमति दी जाए। चीन समेत कई देशों द्वारा आयातों की भारी मात्रा में डंपिंग के चलते हमारे उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और आयातों पर हमारी निर्भरता बढ़ गई। इसके साथ ही हमारा व्यापार घाटा बढ़ता गया जिसका सीधा असर डॉलर की मांग पर पड़ा और रुपए का अवमूल्यन होता गया।

ऐसे में क्या करें कि रूपया संभले 

यह बात ठीक है कि बढ़ती तेल कीमतां और उसके कारण बढ़ते भुगतान घाटे पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं हो सकता। दूसरी तरफ अमरीकी प्रशासन द्वारा की अपनी खुद की नीतियों पर भारत का कोई नियंत्रण नहीं। अंतर्राष्ट्रीय कारणों से विदेशी संस्थागत निवेशकों के बहिर्गमन पर भी भारत का कोई नियंत्रण नहीं है। लेकिन भारत में निवेश करने वाले विदेशी निवेशकां को अनुशासित करते हुए उनके बहिर्गमन को रोकने के लिए यथोचित उपाय/ प्रयास भारत सरकार द्वारा किए जा सकते हैं।

मालूम हो कि विदेशी संस्थागत निवेशकां को अपने लाभों पर कोई कर देना नहीं पड़ता इसलिए वे कभी भी रातों-रात अपना निवेश लेकर बिना किसी को बताए बाहर लेकर चले जाते हैं। इस प्रकार के निवेशकां पर लॉक इन पीरियड की शर्त लगाने की मांग लंबे समय से की जाती रही है। स्वदेशी जागरण मंच के अखिल भारतीय सह संयोजक डॉ. अश्वनी महाजन इस विषय को लेकर लगातार सरकार से मंत्रणा करते रहे हैं। क्योंकि ऐसा होता है तो यह शर्त लगाई जा सकती है कि यदि कोई विदेशी निवेशक भारत में आता है तो एक निश्चित समय काल के लिए वह निवेश करके रखें। अगर किन्हीं परिस्थितियों में वह अपना निवेश बाहर ले जाना चाहता है तो सरकार को सूचित करें ताकि सरकार अपनी अर्थव्यवस्था के सुचारू रूप से चलने के लिए समय रहते आवश्यक कदम उठा सके। ज्ञात हो कि कई देशों में संस्थागत निवेशकां द्वारा अपना धन बाहर ले जाने पर ‘कर’ भी लगाया जाता है, जिसे ‘टॉबिन टैक्स’ के नाम से जाना जाता है। इस तरह के कर का प्रावधान करके सरकार विदेशी संस्थागत निवेशकों के बहिर्गमन को बहुत हद तक काबू कर सकती है। इसमें शक नहीं की रुपए की मौजूदा मुसीबत में अंतरराष्ट्रीय कारक भी काम कर रहे हैं। भारतीय स्थिति से जुड़े यह कारक विश्व अर्थव्यवस्था की बुनियादी ढांचागत विशेष के ऊपर से असर डाल रहे हैं। मिसाल के तौर पर हमें यह समझना होगा कि लगातार बहुत भारी चालू खाता बनाए रखने के बावजूद अमेरिकी डॉलर की स्थिति पुख्ता बनी हुई है जबकि भारतीय रूपया मौजूद घाटे के सामने बैठता जा रहा है।

रुपया आज जिस तरह से नीचे जा रहा है उसे तरह से इसे नीचे नहीं जाने दिया जा सकता है। क्योंकि आयातों पर बढ़े कर्ज का बोझ अंततः उपभोक्ता पर पड़ता है इससे जनता पर मुद्रा स्थिति का दबाव बढ़ता है।

कुल मिलाकर बड़े हुए आयात के चलते विदेशी मुद्रा का भुगतान बड़ा है लेकिन इसमें संतुलन लाने के लिए निर्यात के मोर्चे पर हमें पीछे है। अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी होने की वजह से निवेश पर असर पड़ा है जिसके चलते रोजगार के नए मौके बनने के बजाय छंटनी प्रक्रिया तेज हुई है। लेकिन इसके समानांतर का सच यह है कि संकट उतना बड़ा नहीं है जिससे कि उबरा न जा सके। अगर उपायों को खांचे से बांटने के बजाए उसे समग्रता में और प्रबल इच्छा शक्ति के साथ लागू किया जाए। इसके लिए सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक, नीति आयोग और निजी उद्योगों को मिलकर एक मजबूत अर्थव्यवस्था की दिशा में पहल करनी होगी। छोटे-मोटे बदलाव से काम नहीं चलेगा। दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए बड़े और सधे हुए आर्थिक कदम उठाने की जरूरत है। जाहिर है कि तब रूपया भी उठेगा और देश का नाम बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में शुमार होगा।

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