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खान-पान को नियंत्रित करता सोशल मीडिया

हैल्दी फूड के नाम पर यूट्यूब पर इतने मनगढ़ंत और अप्रमाणिक पोस्ट होते हैं जिनका मुख्य उद्देश्य अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाकर अपनी आय बढ़ाना है।  - विनोद जौहरी

 

सोशल मीडिया ने हमारे दैनिक जीवन में भोजन को कितनी गहराई तक परिवर्तित कर दिया है जिसके कुप्रभाव अधिक जबकि सकारात्मक प्रभाव नगण्य हैं। सोशल मीडिया नेटवर्क, इंस्टाग्राम, फेसबुक, स्नैपचैट, यूट्यूब ने इस क्षेत्र में भूचाल सा खड़ा कर दिया है। सोशल मीडिया का एल्गोरिथम ऐसा है कि आपको अपनी रुचि से उलट विवश होकर ऑनलाइन आर्डर देने को मजबूर होना पड़ता है। इन ऑनलाइन आर्डर सप्लाई करने वाले प्लेटफॉर्म की गति इतनी तीव्र है, कि अतिथि भोजन पर बैठे हों, तो भी पांच सात मिनटों में खाद्य पदार्थ पहुंच जाता है। भोजन के खाद्य पदार्थों, समय, पथ्यापथ्य, ऋतु अनुकूल भोजन, शरीर की आवश्यकता अनुसार भोजन, स्वास्थ्य के अनुसार भोजन, देर रात्रि भोजन, तामसिक एवं सात्विक भोजन आदि सभी की मान्यताओं एवं व्यवहार का अर्थ परिवर्तित हो गया है। पिज्ज़ा, बर्गर, मोमो, काठी रोल ने कम आयु के बच्चों और युवा वर्ग का खान-पान बिल्कुल खराब कर दिया है। वर्तमान की अति गतिशील जीवन में कभी भी, कुछ भी, कहीं भी, कैसे भी, कहीं से भी खाने की विवशता भी है और आदत भी। घर में कोई अतिथि का भोजन हो तो कुछ तो स्विगी, ज़ोमैटो या किसी रेस्तरां से अवश्य आयेगा। परिवार यदि बाहर निकला हुआ है तो चिप्स के पैकेट, बाजार के स्नैक्स, कोल्ड ड्रिंक्स साथ में अवश्य होंगे। कुछ बात ऐसी भी है कि इन्हीं सब कारणों से घर में भोजन बनाने में रुचि भी कम हो रही है। हमारे पारम्परिक भोजन लुप्त हो रहे हैं। भले ही किसी भोजन य भोज्य पदार्थ का सर्टिफिकेशन हो या न हो, चाहे ’हलाल’ का भी प्रमाण पत्र हो, कुछ भी चलेगा। लाखों रुपए महीने की आय वाले परिवार किस सीमा तक जंक फूड के पराधीन और व्यस्नी हो चुके हैं और किस सीमा तक घर के भोजन का तिरस्कार हो रहा है, बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। सबसे अधिक कुप्रभाव और इसके कारण कुपोषण छोटे बच्चों और युवा वर्ग का हो रहा है, अपनी विवशता और किंकर्तव्यविमूढ़ता का बोध हो रहा है। 

मोबाइल चला रहे हों और सोशल मीडिया पर आपको तरह-तरह की बीमारियों से जुड़े घरेलू नुस्खे न दिखाई दें ऐसा हो ही नहीं सकता है। अक्सर लोग इनपर आंख मूंदकर भरोसा कर लेते हैं जिसके बाद आगे चलकर सेहत को मुसीबत में डाल बैठते हैं।

सोशल मीडिया के कारण कहीं ना कहीं युवाओं का बजट बिगाड़ता है। क्योंकि जब आप दोस्तों के शेयर की हुई डिश के बारे में सर्च करेंगे तो आपका सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म चाहे वो इंस्टाग्राम हो या फेसबुक आपको उससे सम्बंधित विडियोज़, डिशिज, रेस्टोरेंट दिखाना शुरू कर देगा। जिससे आप या तो वहां जाने का मन बना लेते हैं या फिर आनलाइन स्विगी,ज़ोमेटो से आर्डर कर देते हैं।

एक सर्वे के अनुसार जो लोग खाना खाते वक्त सोशल मीडिया चलाते हैं वह मस्तिष्क के दिशा भ्रम के कारण एक तो ज्यादा खाना खाते हैं और दूसरे वह अपना खाना पूरी तरह से आनंद पूर्वक नहीं कर पाते। इस सबका मुख्य कारण और इसका सबसे अपराधी सोशल मीडिया और उसके इंफ्लुएंसर हैं जो बड़े फिल्म स्टार, खिलाड़ी, सोशल मीडिया ’सेंसेशन’ और प्रतिष्ठित व्यक्तित्व होते हैं जिनके लाखों अनुयायी होते हैं जो भले ही वह अपने माता-पिता की एक न सुनें। सोशल मीडिया ने परिवारों में क्लेश तो फैला ही रखा है, परिवार के सबसे पवित्र स्थान रसोई को दूषित भी कर दिया है। इन्फ्लुएंसर खाद्य ब्रांडों और भोजनलय के लिए रणनीतिक साझेदार भी बन गए हैं, जो विशेष मेनू, सीमित समय के ऑफ़र और विशेष आयोजनों पर सहयोग करते हैं। ये साझेदारियाँ न केवल इन्फ्लुएंसरों को सामग्री प्रदान करती हैं, बल्कि व्यवसायों को पहले से जुड़े दर्शकों तक सीधी पहुँच भी प्रदान करती हैं।

सोशल मीडिया के सकारात्मक प्रयोग करने वाले न के बराबर हैं, उनकी चर्चा करने से श्रेयस्कर है कि कुप्रभाव को रोकने का प्रयास और जागरूकता उत्पन्न की जाये।

जंक फूड का यही नहीं पता चलता कि उसके प्रिजर्वेटिव का शरीर के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ रहा है और उसमें कौन से तेल, मसाले, एसेंस प्रयुक्त हुए हैं और उनकी एक्सपायरी तिथि की क्या वास्तविकता है ? नवजात बच्चों के टॉप फीड के अवयवों की क्या वास्तविकता है और वह नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य के लिए कितना लाभकारी है, और इनकी क्या विश्वसनीयता है, यह प्रश्न प्रमाणिकता की विश्वसनीयता के लिये खड़े रहते हैं। नवजात शिशुओं के डाक्टर ही टॉप फीड का परामर्श देते हैं और मां के दूध को सीमित करने का परामर्श देते हैं। जब टॉप फीड इतने प्रचलित नहीं थे, तब मां का दूध ही अमृत था, अब टॉप फीड नव अमृत है। ’कुछ मीठा हो जाये’ का ऐसा जादू बैठ गया है कि हर घर के रेफ्रिजरेटर में बच्चों के लिए चॉकलेट अवश्य मिलेगी और चार पांच कोल्ड ड्रिंक की बोतलें भी मिलेंगी। 

हैल्दी फूड के नाम पर यूट्यूब पर इतने मनगढ़ंत और अप्रमाणिक पोस्ट होते हैं जिनका मुख्य उद्देश्य अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाकर अपनी आय बढ़ाना है। 

सोशल मीडिया पर मौजूद हर चीज सच नहीं होती है, ऐसे में अगर आप भी खानपान और सेहत से जुड़ी कुछ बातों पर आंख मूंदकर विश्वास करते हैं, तो सावधान हो जाने की जरूरत है, इससे न सिर्फ आप अपनी सेहत को जोखिम में डालते हैं, बल्कि ऐसी बातों को लोगों में फैलाकर जाने-अनजाने में सभी का लाइफस्टाइल खराब कर बैठते हैं।

ऐसा नहीं है कि प्रमाणिक वैबसाइट और एप्प्स पौष्टिक भोजन और आहार पर श्रेयस्कर जानकारी भी देते हैं, परंतु इनका सदुपयोग कितना होता है, हम सब अच्छी तरह समझते हैं। श्री अन्न और उसके विभिन्न भोज्यपदार्थों की सूचना भी प्रचुरता से उपलब्ध है परंतु उनका उपयोग बहुत सीमित है।

भारत में ऐसी कानूनी प्रक्रिया बहुत शिथिल है जिसमें गलत या अपुष्ट सूचनाओं के आधार पर सूचना देने और विज्ञापन देने पर समुचित न्यायिक कार्यवाही हो। समाज में जंक फूड पर जागरूकता आवश्यक है और परिवारों में अनुशासन भी। कुछ नियंत्रण डाक्टरों पर भी आवश्यक है जो स्वयं किंचित फार्मास्युटिकल कंपनियों के भोज्य उत्पादों को प्रोत्साहित करते हैं। भारत एवं राज्य सरकारों के अस्पतालों में जंक फूड और पिज्जा, बर्गर, मोमो जैसे स्ट्रीट फूड के विरुद्ध जागरूकता बढ़ाई जाये।

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