भारत की आर्थिक-राजनीतिक स्थिरता उनके लिये भी चुनौती है और इसी कारण हमें बड़ी ज़िम्मेवारी के साथ अपने नागरिक बोध, तथा कुटुंब प्रबोधन के आधार पर पर्यावरण की रक्षा करते हुए, पारस्परिक समरसता को बनाकर स्वदेषी भावना से राष्ट्र-हित में काम करते रहना चाहिए, यही राष्ट्र-भक्ति है। - डॉ. धनपत राम अग्रवाल
सत्ता का एक आध्यात्मिक स्वरूप है और दूसरा मायावी स्वरूप है। एक स्थिर और स्थाई है और दूसरा मिथ्या और परिवर्तनषील है। आध्यात्मिक सत्ता का आधार धर्म है। धर्मों रक्षति रक्षितः। धर्म का मूल आधार सत्य और अहिंसा है। सत्यमेव जयते। परहित सरिस धर्म नहीं भाई। सर्वभूतहिते रताः। इसी से वसुधैव कुटुम्भकम् का सिद्धांत आता है। इन सारे परिप्रेक्ष्य में जब हम चिंतन करते हैं तो पाते हैं कि भौतिक सत्ताओं में परिवर्तन होता आया है और इतिहास इसका साक्षी है। कभी दैविक शक्ति और कभी आसुरी शक्ति इस भौतिक जगत में परिवर्तन का कारण बनती आयी हैं। जगत के बाहरी और आभ्यांतरिक रूप और स्वरूप में नित्य यह युद्ध चलता रहता है। महाभारत के युद्ध काल से लेकर और आज तक तथा जबसे सृष्टि की रचना हुई है तबसे किसी न किसी दंत कथाओं में और वर्तमान साहित्य में हमें इसका अध्ययन करने से पता चलता है कि आसुरी सत्ता और दैविक सत्ता प्रकृति के त्रिगुणात्मक स्वभाव सत् रज और तम की अभिव्यक्ति है और अंततोगत्वा सात्विक गुणों के आधार पर दैविक सत्ता की विजय होती है। वर्तमान समय में भी जो सनातन वैदिक संस्कृति है और जो त्याग पर आधारित संयमपूर्ण जीवन शैली की प्रेरणा देती है, उसके बीच और पाष्चात्य बाज़ारवादी सभ्यता जो सिर्फ़ भौतिकवादी दृष्टिकोण पर आधारित है और जो व्यक्तिगत स्वार्थ और उपभोक्तावाद द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करते हुए हिंसा और द्वेष को प्रोत्साहित करती है, उन दोनों के बीच संघर्ष को परिलक्षित करती है।
भारत अनादिकाल से वैदिक सनातन संस्कृति का पालन और संवर्धन करता आया है, जबकि पाष्चात्य देषों में पूंजीवाद या साम्यवाद के आधार पर औपनिवेषिक मानसिकता को बढ़ावा दिया गया है। यही कारण है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति युगानुकूल परिवर्तन के साथ बहुत से संघर्षों को झेलते हुए विजयी होकर आगे बढ़ती रही है जबकि मिश्र, यूनान, तुर्क, रोमन और ब्रितानी सभ्यताओं का नामों निषान नहीं है और आज जो अमेरिकन पूंजीवाद या बाज़ारवादी है वह अपने अस्तित्व की लड़ाई में पिछड़ता दिखाई पड रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व तक उपनिवेषवादी ताक़तें दुनिया में अपना वर्चस्व स्थापित कर आर्थिक शोषण तथा अपनी धार्मिक संस्थाओं का प्रसार कर दुनिया में अपनी विचार धारा से प्रभावित कर उनके सामाजिक-आर्थिक जीवन पर अपना प्रभुत्व क़ायम रखती थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिष साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया। उपनिवेषवाद समाप्त प्राय हो गया। अमेरिकी बाज़ारवादी ताक़तें मज़बूत होने लगी किंतु साथ ही साथ साम्यवाद और समाजवाद भी बढ़ता रहा। 1945 से 1990 के काल को शीत- युद्ध का काल भी कह सकते हैं, जब अमेरिकी और सोवियत रूस दुनिया के अलग अलग हिस्सों पर अपना प्रभुत्व रखते थे। फिर बर्लिन की दीवार का टूटना और सोवियत रुस का 11 राज्यों में विभाजन या विघटन होने से 1990-91 के पष्चात वैश्वीकरण और बाज़ारवाद का एकक्षत्र वर्चस्व बढ़ने लगा और अमेरिका का बोलबाला रहा, किंतु पिछले लगभग 10-15 वर्षों से चीन का आर्थिक प्रभाव बढ़ना प्रारम्भ हो गया। हम यह भी कह सकते हैं कि आर्थिक विकास का ध्रुवीकरण पष्चिम से पूरब की तरफ़ हो गया। इस बीच जी-7 देषों के लंबे आर्थिक प्रभुत्व में कुछ ढिलाई आयी है और 2008-09 की अमेरिकी आर्थिक तंगी के बाद से जी-20 देषों में भारत और चीन की आर्थिक शक्ति बढ़ रही है। साथ ही अब अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के देषों को जिन्हें ग्लोबल साउथ के नाम से जाना जाता है, उनकी भी आवाज़ में ताक़त आयी है। अब सत्ता के कई केंद्र बन गये हैं। ब्रिक्स भी जो ब्राज़ील, रुस, भारत और चीन तथा दक्षिण अफ़्रीका का संगठन है, यह भी काफ़ी प्रभावषाली बन रहा है।
सिर्फ़ आर्थिक उन्नति और सामरिक शक्ति सम्यक विकास का परिचायक नहीं है। अमेरिका और चीन की आर्थिक और सैनिक शक्ति भारत से कई गुना ज़्यादा होने के बावजूद भी भारत की नैतिक मूल्यों के आधार पर तथा सदियों से ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में आगे रहने की वजह से सारी दुनिया में भारत की साख बढ़ी है। अतः आज सत्ता का नया आधार सिर्फ़ पैसा या पूँजी अथवा सिर्फ़ प्राकृतिक संसाधन नहीं, बल्कि ज्ञान, विज्ञान और सांस्कृतिक धरोहर है। आर्थिक उन्नति का मापदंड क्या हो इस पर भी चर्चा चल रही है। आपके देष में सुख, चैन और शान्ति कितनी है, हवा, पानी और वातावरण या पर्यावरण की स्थिति कैसी है, भोजन कितना पौष्टिक है, आपके नागरिकों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य कैसा है, इन सब बातों को मिलाकर देखने से पता चलता है कि विकास किस दिषा में ले जा रहा है। सिर्फ़ अस्पतालों की और पुलिस- थानों की संख्या के बढ़ जाने से विकास नहीं माना जा सकता क्योंकि यह तो अपराध के बढ़ने और सड़क दुर्घटनाओं के बढ़ने और आपसी कलह और द्वेष बढ़ने का भी परिचायक हो सकता है।
सामान्य नागरिक के जीवन में सुख -षांति एवं आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा तथा अन्तर्मन में भय से मुक्ति होनी चाहिये। भारत तथा अन्य देषों में भी वैश्वीकरण तथा आधुनिक संचार माध्यमों से सांस्कृतिक आघात-प्रत्याघात हो रहे हैं, जिसका दुष्प्रभाव वर्तमान युवाओं पर पड़ रहा है और इससे सावधान होने की आवष्यकता है। भारत की मूलभूत ताक़त उसके नैतिक मूल्य और सांस्कृतिक चिंतन शैली रही है और इसी के आधार पर हम सारी दुनिया को शान्ति और समरसता का संदेष दे सकते हैं।
1757 ईस्वी में ब्रिटेन के भारत में शासन के पूर्व तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में जाना जाता था। हमारी राश्ट्रीय आय दुनिया कि आय का 24.5 प्रतिषत थी जो 1947 में घटकर सिर्फ़ 2.5 प्रतिषत रह गई। लगभग दो सौ वर्षों में जिस ढंग से हमारी आर्थिक संपत्ति को लूटा गया तथा जिस ढंग से ग़लत आर्थिक नीतियों के द्वारा हमारी कृषि और उद्योग को नष्ट किया गया, भारत को ग़रीबी के विकट संकट से गुजरने के लिये मजबूर होना पड़ा। आज भारत फिर से दुनिया की एक मज़बूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। पिछले कई वर्षों से हमारी अर्थ व्यवस्था काफ़ी तेज़ी से अग्रसर हो रही है और हम दुनिया की पाँचवी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुके हैं तथा कुछ ही वर्षों में हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले राष्ट्र बन जायेंगे। हमारा लक्ष्य 2047 तक एक विकसित भारत बनाने का है जिसमे कोई भी व्यक्ति ग़रीब या बेरोज़गार नहीं रहेगा। हम प्रकृति के पुजारी हैं तथा पर्यावरण की सुरक्षा करना हमारा कर्तव्य है। हम ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘सर्वजन हिताय- सर्वजन-सुखाय’ की संस्कृति में विश्वास करने वाले हैं। आर्थिक विषमता को भी हम ख़त्म कर देंगे तथा ग्रामीण विकास के साथ नगरों के विकास के साथ सामंजस्य रखते हुए, आधुनिक विज्ञान तथा तकनीक को प्राथमिकता देते हुए, प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए आगे बढ़ेंगे।
‘स्व’ के वैचारिक अधिष्ठान के आधार पर स्वधर्म, स्वराज और स्वदेषी की त्रिसूत्र हमारा आधार रहेगा। स्वधर्म का तात्पर्य हमारी संस्कृति और नैतिक मूल्यों से है, हमारी मेहनत और ईमानदारी से है। हमारा ध्येय बसुद्धैव कुटुम्बकम् से है, सर्व धर्म सम्भाव से है। स्वराज से तात्पर्य हमारी संप्रभुता से है, लोकतंत्र पर हमारी आस्था से है, लोक कल्याण से है। स्वदेषी का तात्पर्य स्वावलंबन और स्वरोज़गार से है, विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था से है। प्राकृतिक संसाधनों के संयमित दोहन से है। कृषि, पषु पालन तथा उद्योग के समन्वय और सहकारी मध्यम से सबके हित में काम करने से है।
ऐसा आर्थिक- सामाजिक दृष्टिकोण से जब हम हमारी आर्थिक नीतियों का निर्धारण और उसका क्रियान्वयन केरेंगे, तब अवष्य ही एक समृद्ध और वैभवषाली भारत का निर्माण कर सकेंगे।
इस समय हमारे सामने जो सबसे बड़ी चेतावनी है, वह हमारे शत्रुओं से सावधान रहने की है। वैश्विक बाज़ार की पाषविक वृत्ति वाली ताक़तें जो पहले औपनिवेषिक शोषण और फिर वैश्विक संस्थाओं की आड़ में हमारे कच्चे माल का और हमारे साधारण उपभोक्ताओं का शोषण करती आयी हैं, उनको यह क़तई बर्दाष्त नहीं कि भारत एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरे। वे हमारी राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता को हर हाल में बिगाड़ने कि कोषिष में लगे हैं। हमें उन्हें पहचानना होगा, उनके हर प्रयासों सें सावधान रहना होगा। वे बहुत से छद्म भेष में हमारे शासन, प्रषासन, हमारे शिक्षा संस्थानों, हमारे वित्तीय संस्थानों में तथा अन्य तरीक़ों से हमारे युवाओं को राष्ट्र विरोधी भावनाओं से विषाक्त बनाने तथा उन्हें भ्रमित करने की कोषिषों में लगे हुए हैं। उनका प्रयास राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता पैदा करके अपरोक्ष रूप से सत्ता पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर अपने आर्थिक तथा अन्य विचार धाराओं का प्रसार करना है ताकि सारी दुनिया में हिंसा और अषांति बनी रहे। वर्तमान में जो भौगोलिक - राजनीतिक विश्व-व्यापी अस्थिरता बनी हुई है, वह इन्हीं नकारात्मक और संकीर्ण विचारधारा वाले तत्वों की वजह से है। भारत की आर्थिक-राजनीतिक स्थिरता उनके लिये भी चुनौती है और इसी कारण हमें बड़ी ज़िम्मेवारी के साथ अपने नागरिक बोध, तथा कुटुंब प्रबोधन के आधार पर पर्यावरण की रक्षा करते हुए, पारस्परिक समरसता को बनाकर स्वदेषी भावना से राष्ट्र-हित में काम करते रहना चाहिए, यही राष्ट्र-भक्ति है।