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क्यों सही नहीं है बैंकों को विदेशियों को बेचना?

दुनिया के कोई भी महत्वपूर्ण देश आमतौर पर पिछले दरवाजे से अपने बैंकिंग क्षेत्र में इस तरह के प्रवेश की अनुमति नहीं देते हैं। - डॉ. अश्वनी महाजन

 

वर्ष 2020 के मार्च माह में भारत के एक महत्वपूर्ण निजी बैंक, यस बैंक के निजी प्रबंधन की गलतियों (भ्रष्टाचार सहित) के कारण लगभग दिवालिया हो गया था। लोगों का विश्वास खोने के बाद बैंक से जमा कर्ताओं ने अपनी राशि वापिस लेना शुरू कर दिया, जिसके चलते बैंक को अपने लेनदेन को रोकना पड़ा। ऐसे में भारतीय स्टेट बैंक (एक सरकारी बैंक) ने 49 प्रतिशत शेयर ख़रीद कर उसे अपने हाथ में लिया, जिससे यस बैंक में जमा कर्ताओं का विश्वास पुनः जम गया। उसके बाद यह बैंक पुनः उठ खड़ा हुआ और अपनी सामान्य बैंकिंग गतिविधियों में संलग्न हो गया। बाद में यस बैंक ने नये शेयर जारी कर और पूँजी जुटाई, और भारतीय स्टेट बैंक की हिस्सेदारी 24 प्रतिशत तक आ गयी। स्टेट बैंक के अलावा 11 अन्य ऋणदाता संस्थाएँ हैं जिनके पास यस बैंक के लगभग 9.74 प्रतिशत शेयर हैं। यस बैंक के 16.05 प्रतिशत शेयर अन्य दो निजी इक्विटी फंडों के पास हैं।

समाचार पत्रों की हालिया रपटों के अनुसार जापान की मितसुभिषी यूएफजे फाइनेंसिएल ग्रुप नामक कंपनी को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के यस बैंक में शेयरों को बेचने की बात आगे बढ़ गई है। प्रस्तावित विदेशी निवेशक, यस बैंक के 51 प्रतिशत शेयर क़ब्ज़ाना चाहते हैं ताकि उसके पास निर्णय का अधिकार आ जाये। इस के लिए हालाँकि वे पहले तो भारतीय रिज़र्व बैंक की इस नियमानुसार शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि उन्हें अगले 15 वर्षों में अपनी प्रमोटर शेयरहोल्डिंग को 26 प्रतिशत तक लाना होगा, लेकिन अब वे वो भी मान गये हैं।

गौरतलब है कि इस बैंक को उबारने में भारतीय स्टेट बैंक ने 7520 करोड़ रूपए का पुनः पूंजीकरण किया था। लेकिन बैंक के पुनरूद्धार के बाद भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा लगाई गई पूंजी बढ़कर अब 18000 करोड़ रूपए पहुंच चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप के बाद न केवल जमा कर्ताओं का पैसा डूबने से बच गया, बल्कि बैंकिंग व्यवस्था में लोगों का विश्वास पुनः स्थापित हुआ और इस प्रक्रिया में भारतीय स्टेट बैंक को भी 10000 करोड़ रूपए से अधिक का पूंजीगत लाभ भी हुआ। ऐसे में इस बात पर विचार करना जरूरी है कि क्या यस बैंक के 51 प्रतिशत शेयरों को विदेशी हाथों में सौंप कर, यानी यस बैंक जैसे महत्वपूर्ण बैंक को विदेशी हाथों में सौंपना उचित होगा।

एलपीजी नीतियों के अंतर्गत कई सरकारी उद्यमों का निजीकरण किया गया। बैंकिंग क्षेत्र में चूंकि पहले से ही निजी भारतीय और विदेशी बैंक कार्यरत थे और वे बदस्तूर चलते रहे। इसके साथ ही साथ कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ गैर वित्तीय संस्थानों को बैंकों में बदला गया और कुछ नए बैंकों को निजी क्षेत्र में काम करने के लाईसेंस प्रदान किए गए। लेकिन इस दौरान भी बैंकों के सार्वजनिक क्षेत्रों के निजीकरण से सरकार बचती रही।

गौरतलब है कि बैंकिंग किसी भी देश के लिए एक महत्वपूर्ण वित्तीय क्षेत्र है। यह बात सही है कि दुनिया में निजी और सरकारी दोनों प्रकार के बैंक पाए जाते हैं। अमरीका और यूरोप सरीखे पूंजीवादी देशों में ज्यादातर बैंक निजी हाथों में हैं। निजी बैंकों में जमाकर्ताओं की राशि बीमा की सीमा तक ही सुरक्षित होती है। बीते सालों में अमरीका में ही हजारों बैंक दिवालिया हुए, जिसके चलते जमाकर्ताओं को उनकी गाढ़े-पसीने की कमाई से हाथ धोना पड़ा। यूरोप की स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं है और वहां भी आए दिन बैंकों की दिवालिया होने की खबरें आम बात है।

भारत एक ऐसा देश है, जहां आजादी के बाद और खासतौर पर 1969 में बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद निजी बैंकों के दिवालिया होने की भी खबरें अपवाद हैं। सार्वजनिक बैंकों में जमाकर्ताओं की राशि डूबना तो संभव है ही नहीं, क्योंकि इस राशि की सरकार की संप्रभु गारंटी होती है। भारतीय रिजर्व बैंक के सख्त नियमन के कारण निजी बैंकों में लोगों की धन राशि काफी हद तक सुरक्षित है और जब कभी कुप्रबंधन के कारण उनके दिवालिया होने की संभावना भी बनती है तो सरकारी हस्तक्षेप से उसे दुरूस्त कर दिया जाता है। पिछले दिनों यस बैंक का पुनरूद्धार उसका का जीता-जागता एक उदाहरण है।

बैंकों का निजीकरण उन्हें विदेशी हाथों में सौंप कर ही क्यों?

हाल ही में कुछ चुनिंदा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एकीकरण कर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या को कुछ कम किया गया है। साथ ही साथ समय-समय पर सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों के निजीकरण की बात को दोहराती भी रही है। लेकिन अभी तक किसी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक का निजीकरण नहीं किया गया है।

आज जब देश में इस विषय पर नीतिगत चर्चा के बिना एक महत्वपूर्ण बैंक जो, भारतीय स्टेट बैंक द्वारा अधिग्रहीत कर डूबने से बचाया गया था, को विदेशी हाथों में सौंपना यस बैंक के ग्राहकों, देश के वित्तीय क्षेत्र की स्थिरता और विकास के लिए उपयुक्त होगा। क्या यस बैंक को विदेशी हाथों में सौंपना, एकमात्र विकल्प है, या उसके अलावा भी विकल्प हैं? यदि विकल्प हैं तो उनपर गंभीरता से विचार हुआ है या नहीं?

क्या रणनीतिक विनिवेश ही एकमात्र विकल्प है?

जब सरकार रणनीतिक निवेशकों की तलाश में विनिवेश के साथ आगे बढ़ रही थी, तो कुछ हलकों से एक समझदारी भरा विचार आया कि क्या हम इक्विटी रूट के ज़रिए विनिवेश नहीं कर सकते और तब से सरकार विभिन्न वाणिज्यिक उपक्रमों में सरकार द्वारा रखे गए शेयरों को बाज़ार में बेचकर इक्विटी रूट के ज़रिए विनिवेश कर रही है। इस प्रक्रिया में, सरकार विभिन्न वाणिज्यिक उपक्रमों में अपनी इक्विटी को कम करने के उद्देश्य को प्राप्त कर सकती है और अपने विकास संबंधी व्यय को निधि देने के लिए एक महत्वपूर्ण राशि भी जुटा सकती है

वर्तमान मामले में, जबकि एसबीआई यस बैंक में अपने निवेश की वसूली करने के लिए इच्छुक हो सकता है, शेयर बाज़ार में बैंक में एसबीआई की शेयरधारिता को विनिवेश करके भी यही रास्ता अपनाया जा सकता है। इस प्रक्रिया में भारतीय स्टेट बैंक को उतनी ही राशि मिलेगी जितनी उसे किसी विदेशी फ़र्म को अपनी हिस्सेदारी बेचकर मिलने की उम्मीद है। यदि बाज़ार में बेचे जाने वाले शेयर आम जनता के पास हैं, तो विविध शेयरधारिता यह सुनिश्चित करेगी कि बैंक के दिन-प्रतिदिन के कामकाज में किसी विदेशी खिलाड़ी का दबदबा नहीं रहेगा।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब से एसबीआई ने यस बैंक को बचाया है, तब से लोगों का यस बैंक पर भरोसा कई गुना बढ़ गया है, क्योंकि वे यस बैंक में अपनी जमा राशि को एसबीआई में जमा राशि के बराबर मानते हैं, जिस पर वास्तव में संप्रभु गारंटी है। इस पूरे प्रकरण का सबसे चिंताजनक हिस्सा यह है कि एसबीआई सहित विभिन्न निवेशकों द्वारा यस बैंक में हिस्सेदारी बिक्री के संबंध में बंद दरवाजे की बैठकों में क्या हो रहा है, इसके बारे में जमाकर्ताओं को पूरी तरह से अंधेरे में रखा गया है। निष्पक्षता से, जमाकर्ताओं को बताया जाना चाहिए कि वे अब एसबीआई के संरक्षण और इसलिए संप्रभु संरक्षण का आनंद नहीं ले पाएंगे।

तीसरा, दार्शनिक मुद्दा यह है कि क्या हमें बैंकिंग प्रणाली में लोगों के विश्वास को तोड़ना चाहिए। यदि यस बैंक में नियंत्रण हिस्सेदारी विदेशियों को बेचने का प्रस्तावित सौदा हो जाता है, तो इससे बैंकों के विनिवेश और उन्हें विदेशियों को बेचने का एक बड़ा मामला खुल सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि वर्तमान परिदृश्य में, हमारे पास ऐसे बहुत से भारतीय खिलाड़ी नहीं हैं जो भारतीय बैंकों में हिस्सेदारी खरीद सकें, जबकि विदेशी खिलाड़ियों की कोई कमी नहीं है। यदि इक्विटी मार्ग से विनिवेश की संभावना को खारिज कर दिया जाता है, तो विदेशी संस्थानों की बाढ़ आ सकती है, जो ’सरकार का व्यवसाय में कोई काम नहीं है’ के दर्शन के तहत हमारे अच्छे से चलने वाले बैंकों को अपने नियंत्रण में लेने के लिए तैयार हैं।

इसलिए, एसबीआई और अन्य निवेशकों को इक्विटी रूट के माध्यम से अपनी हिस्सेदारी बेचने के लिए प्रेरित करना और भारतीय प्रबंधन को यस बैंक चलाने देना उचित होगा। विदेशी खरीदार भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में मुफ्त प्रवेश के लिए कोई मूल्य (पूंजी की एक छोटी राशि के अलावा जिसकी हमें आवश्यकता नहीं है) नहीं ला रहा है। दुनिया के कोई भी महत्वपूर्ण देश आमतौर पर पिछले दरवाजे से अपने बैंकिंग क्षेत्र में इस तरह के प्रवेश की अनुमति नहीं देते हैं।         

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