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डॉ. एम.एस. स्वामीनाथनः भारतीय कृषि विकास के कर्त्ता-धर्त्ता

1964 से 1980 के वर्ष भारतीय कृषि विकास में महत्वपूर्ण थे और वह डॉ. स्वामीनाथन के नए प्रयोग और भारतीय हरित क्रांति की सफल यात्रा का काल था। - अनिल जवलेकर

 

पद्म विभूषित कृषि विशेषज्ञ डॉ स्वामीनाथन के निधन के साथ ही एक बड़े भारतीय कृषि युग का अंत हुआ है। भारतीय कृषि विकास में विशेष भूमिका निभाने वालों में डॉ एम.एस. स्वामीनाथन का नाम सबसे पहले आता है। भारत रत्न जैसे पुरस्कार-योग्य, जो गिने-चुने व्यक्ति होते है, उनमें डॉ स्वामीनाथन का नाम लिया जा सकता है। महत्त्वपूर्ण बात यही है कि उनका काम स्वतंत्रता के बाद के सबसे कठिन समय का है, जब भारत गरीबी और अनाज की कमी जैसी समस्याओं से जुझ रहा था। आज भारत अनाज के मामले में आत्मनिर्भर है और अन्य देशों की मदद करने की स्थिति में है। इसका पूर्ण श्रेय डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन जैसे राष्ट्र समर्पित कृषि वैज्ञानिकों को दिया जाता है, जिन्होंने कृषि उत्पादन बढ़ा सकने वाले बीजों को खोजा, उनको किसानों तक पहुंचाया और भारतीय कृषि उत्पादन में क्रांति ला दी। 1964 से 1980 के वर्ष भारतीय कृषि विकास में महत्वपूर्ण थे और वह डॉ. स्वामीनाथन के नए प्रयोग और भारतीय हरित क्रांति की सफल यात्रा का काल था। 

भारतीय कृषि की विकट अवस्था

स्वतंत्रता के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था कंगाल अवस्था में थी और भारत को अनाज आयात कर अपनी जनता का भरण-पोषण करना पड़ता था। अनाज के लिए अमरीका जैसे देशों के सामने लाचार हुआ भारत सभी को याद होगा। भारतीय कृषि सर्वदृष्टि से पिछड़ी हुई थी। ऐसे समय में कृषि की उपज बढ़ाना एक बड़ा कठिन काम था। तब के राजकीय तथा प्रशासकीय नेतृत्व की यह सबसे बड़ी समस्या थी, यह भी विदित है। यह भी सही है कि बाहर के देशों में नोबल पारितोषिक विजेता डॉ नॉर्मन बोरोलोग जैसे कृषि वैज्ञानिक फसल की नई उपजाऊ जातियाँ विकसित कर अनाज उत्पादन बढ़ाने में कामयाब हो रही थी, लेकिन भारत को अपनी कृषि अनुकूल संशोधन कर उपयोग करना मुश्किल काम था। भारत में कृषि संशोधन संस्थाएँ थी लेकिन वे कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं थी। ऐसे समय भारतीय कृषि पटल पर डॉ स्वामीनाथन का पदार्पण हुआ और भारतीय कृषि विकास को एक नई दिशा मिली। भारत को अनाज आयात से मुक्ति मिली और भारत अनाज में स्वयंपूर्ण हुआ, आज अनाज निर्यात कर रहा है। 

भारतीय हरित क्रांति के जनक 

डॉ स्वामीनाथन को भारतीय हरित क्रांति का जनक कहते है। कृषि संशोधन में शुरू से रुचि लेने वाले डॉ 1954 में भारत आए और उन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्था दिल्ली से अपना संशोधन कार्य शुरू किया और उसके बाद ही भारतीय हरित क्रांति की शुरुआत हुई। वैसे यह हरित क्रांति इतनी आसान नहीं थी। भारतीय नेता और प्रशासकीय अधिकारियों को नए उपजाऊ बीजों के उपयोग के लिए मनाना जितना कठिन था, उससे भी कठिन काम भारतीय किसानों को नए बीजों के लिए मनाना था। इनमें से कोई भी आसानी से मानना वाला नहीं था। भारत की तकदीर अच्छी थी कि डॉ स्वामीनाथन की बात पर सहमति बनी और 1964 में उनको कुछ प्रयोग करने की अनुमति दी गई, जिसका उन्होंने अपनी बात सिद्ध करने में उपयोग किया। किसानों को मनाने के लिए डॉ स्वामीनाथन गांव-गांव घूमे। किसानों को समझाया और नए बीजों के बारे में विश्वास पैदा किया। 1968 तक किसानों ने अपने खेतों में चमत्कार किया और भारत में अनाज का उत्पादन बढ़ा। यही से भारतीय हरित क्रांति सफलता की ओर चल पड़ी और 1972 तक भारत में अच्छे नतीजे मिले और अनाज की आयात भी कम हुई। डॉ को भी सन्मान मिला। 

डॉ स्वामीनाथन का व्यापक कार्य 

डॉ स्वामीनाथन का कार्य व्यापक रहा है। कृषि संशोधन में तो उनकी रुचि थी ही, लेकिन उन्होंने भारतीय कृषि नीति को भी आकार दिया। कहा जाता है कि 1943 के बंगाल के सूखे से वे व्यथित हुए थे और कृषि संशोधन के लिए प्रेरित हुए। माना जाता है कि 1925 में जन्मे डॉ स्वामीनाथन 1949 में अपनी शिक्षा पूर्ण कर भारतीय पुलिस सेवा में भर्ती होने के लिए निकले थे। लेकिन यूनेस्को की कृषि संशोधन विषयक शिष्यवृति उनको मिली और वे नेदरलंद पहुँच गए। वहाँ से इंग्लैंड व अमेरिका में भी संशोधन के लिए जाकर 1954 में भारत लौट आए और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्था दिल्ली में अपना काम शुरू किया। जब तक भारत ने योजनाबद्ध विकास की राह पकड़ ली थी। लेकिन कृषि में बहुत कुछ नहीं हो रहा था। डॉ चाहते थे कि नोबल परितोषिक विजेता नॉर्मन बोरलॉग भारत आए और भारतीय कृषि अनुकूल कुछ सलाह दें। लेकिन कोई उसके लिए सहमत नहीं था। लेकिन डॉ डटे रहे और 1964 में डॉ स्वामीनाथन को कुछ प्रयोग करने की अनुमति दी गई, जिसमें वह कामयाब रहे। भारतीय किसानों ने भी उनकी बात मान ली और गेहूं के नए बीजों को स्वीकारा। 1968 तक हरित क्रांति ने सफलता हासिल की। भारत में पहली बार गत 4000 सालों का उत्पादन रिकॉर्ड तोड़ा। 1972 तक भारत आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हुआ। निर्यात भी कम हुई और भारत का एक बड़ा मसला हल हुआ। 

डॉ स्वामीनाथन का व्यक्तित्व नम्र और आकर्षक था 

डॉ स्वामीनाथन वैसे तो पेशे से संशोधक और शिक्षक थे और शायद इसलिये वह अपने साथियों में और शिष्यों में अपनी जैसी जिज्ञासा निर्माण कर सके और भारत में एक कृषि वैज्ञानिकों की फौज खड़ी कर सके। उनके व्यक्तित्व की भूमिका इसमें मुख्य कही जा सकती है। वे ज्ञानी थे लेकिन नम्र थे। परेशानियों के बावजूद हंसमुख चेहरा उनकी पहचान था। वे सभी से मिलते और बाते करते। चाहे वह सीधा-साधा किसान क्यों न हो। यही कारण है कि कृषि नीति बनाते समय वे छोटे किसानों को लाभदायक ऐसे सुझाव दे सके। शायद इसलिए आज भी किसान और उनके नेता डॉ स्वामीनाथन आयोग को अमल में लाने की बाते करते है। 

डॉ समीनाथन और आज की कृषि नीति 

डॉक्टर न केवल हरित क्रांति के जनक थे, बल्कि एक ऐसे नेता भी थे जिन्होंने भारतीय कृषि नीति की आवश्यकता बताई। डॉ स्वामीनाथन की अध्यक्षता में बने राष्ट्रीय किसान आयोग ने 2004-2006 के दौरान चार रिपोर्टें दी, जो आज की सभी कृषि नीतियों का आधार कही जा सकती है। आयोग ने कृषि उत्पादकता और किसान की आय में वृद्धि, कृषि भूमि को टिकाऊ बनाने, ऋण प्रणाली में सुधार, शुष्क भूमि में सुधार, स्पर्धात्मक कृषि बाजार प्रणाली, किसानों की बाजार से रक्षा और जलवायु परिवर्तन आदि जैसे कई पहलुओं पर विचार किया और सुझाव दिये। सभी को यह बात ज्ञात होगी कि डॉ ने संतुलित खाद-पानी-कीटकनाशक के उपयोग की बात की और एक सदाबहार हरित क्रांति की आशा सामने रखी। आज के कई कृषि योजनाओं में उनकी बात प्रतिबिम्बित दिखाई देता है। 

भारत को ऐसे वैज्ञानिकों की जरूरत है।  

निःसंदेह, डॉ. स्वामीनाथन जैसा व्यक्तित्व विरले ही जन्म लेता है। उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उचित सम्मान दिया गया है और कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। भारत ने उन्हें पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया है। यहां तक कि भारतीय आम किसान भी उन्हें बहुत करीब पाता था और यही उनके लिए सबसे बड़ा सम्मान था। डॉक्टरों द्वारा स्थापित की हुई संस्था तथा उनके कृषि वैज्ञानिक शिष्य उनके विचारों को आगे ले जाएंगे, इसमें कोई शंका नहीं है। लेकिन मौजूदा सरकार भी उनके ज्यादातर सुझावों पर अमल कर रही है, यह उल्लेखनीय है। इसे उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि माना जा सकता है।           

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