swadeshi jagran manch logo

प्राकृतिक खेती के स्वागत के साथ सावधानी जरूरी

प्राकृतिक खेती सही अर्थों में तभी सफल हो सकेगी यदि हम जीएम फसलों से अपनी कृषि एवं खाद्य व्यवस्था की रक्षा करें। - भारत डोगरा

 

भारतीय सरकार ने प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया है। सरकार ने कहा है कि इसे एक करोड़ किसानों तक पहुंचाना है। इस निर्णय का स्वागत करते हुए यह कहना होगा कि इस उद्देष्य को प्राप्त कर इसे फिर और अधिक किसानों तक भी बढ़ाना चाहिए। हाल ही में इस लेखक को प्राकृतिक खेती को भली-भांति अपनाने वाले अनेक मेहनतकष छोटे किसानों से बातचीत के अवसर मिले। इन किसानों एवं उनकी सहायता करने वाले संस्थानों ने प्रायः साथ में लघु सिंचाई, तालाबों की सफाई एवं सही रख-रखाव, उचित प्रषिक्षण मिट्टी एवं जल संरक्षण पर भी समुचित ध्यान दिया था। परिणाम यह सामने आया कि किसानों ने अपने खर्च को बहुत कम करते हुए भी उत्पादन पहले जितना ही बनाए रखा या उसमें कुछ वृद्धि भी की। हां, इतना जरूर है कि कुछ किसानों को पहले एक-दो वर्षों में कुछ कठिनाई होती है। अतः आरंभिक समय में किसानों की सहायता करने का विषेष ध्यान रखना चाहिए।

विषेषकर छोटे एवं मध्यम किसानों के लिए कृषि पर खर्च को कम कर पाना एक बडी उपलब्धि है। खर्च कम करने से ही कर्ज से भी मुक्ति मिलेगी। रासायनिक खाद एवं कीटनाषक दवाओं पर खर्च कम होने का केवल आर्थिक लाभ ही नहीं है, इस तरह फासिल फ्यूल का उपयोग कम करने से जलवायु बदलाव का संकट भी कम होगा, प्रदूषण भी कम होगा एवं स्वास्थ्य लाभ होगा।

प्राकृतिक खेती को आगे अवष्य बढ़ाना होगा पर इसका वास्तविक लाभ तभी मिलेगा जब जीएम फसलों पर रोक लगेगी। प्राकृतिक खेती एवं जीएम फसलों में परस्पर विरोध है। जी.एम. फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि यह फसलें स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा इनका असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों एवं पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साईंस पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है। इस पैनल में एकत्र हुए विष्व के अनेक देषों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों एवं विषेषज्ञों ने जी.एम. फसलों पर एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है - “जी.एम. फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं और यह फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रहीं हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अतः जी.एम. फसलों एवं गैर जी.एम. फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जी.एम. फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सेफ्टी या सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की क्षति होगी जिसकी पूर्त्ति नहीं हो सकती है, जिसे फिर ठीक नहीं दिया जा सकता है। जी.एम. फसलों को अब दृढ़ता से रिजेक्ट कर देना चाहिए, अस्वीकृत कर देना चाहिए।”

इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा तथा इनके बहुत दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी क्षतिपूर्त्ति नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण एवं जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर इनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण जो पर्यावरण में चला गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है। 

जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रचार कई बार इस तरह किया जाता है कि किसी विषिष्ट गुण वाले जीन का ठीक-ठीक पता लगा लिया है एवं इसे दूसरे जीव में पंहुचाकर उसमें वही गुण उत्पन्न किया जा सकता है। किन्तु हकीकत इससे अलग एवं कहीं अधिक पेचीदी है।

कोई भी जीन केवल अपने स्तर पर या अलग से कार्य नहीं करता है अपितु बहुत से जीनों के एक जटिल समूह के एक हिस्से के रूप में कार्य करता है। इन असंख्य अन्य जीनों से मिलकर एवं उनसे निर्भरता में ही जीन के कार्य को देखना-समझना चाहिए, अलगाव में नहीं। एक ही जीन का अलग-अलग जीव में काफी भिन्न असर होगा, क्योंकि उनमें जो अन्य जीन हैं वे भिन्न हैं। विषेषकर जब एक जीव के जीन को काफी अलग तरह के जीव में पंहुचाया जाए तो, जैसे मनुष्य के जीन को सूअर में, तो इसके काफी नए एवं अप्रत्याषित परिणाम होने की संभावना है।

इतना ही नहीं, जीनों के समूह का किसी जीव की अन्य शारीरिक रचना एवं बाहरी पर्यावरण से भी संबंध है। जिन जीवों में वैज्ञानिक विषेष जीन पंहुचाना चाह रहे हैं, उनसे अलग जीवों में भी इन जीनों के पंहुचने की संभावना रहती है जिसके अनेक अप्रत्याषित परिणाम एवं खतरे हो सकते हैं। बाहरी पर्यावरण जीन के असर को बदल सकता है एवं जीन बाहरी पर्यावरण को इस तरह प्रभावित कर सकता है जिसकी संभावना जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करने वालों को नहीं थी। एक जीव के जीन दूसरे जीव में पंहुचाने के लिए वैज्ञानिक जिन तरीकों का उपयोग करते हैं उनसे अप्रत्याषित परिणामों एवं खतरों की संभावना और बढ़ जाती है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांष महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं एवं वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं। 

कृषि एवं खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टैक्नालाजी मात्र लगभग छः-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथ में केंद्रित हैं। इन कंपनियों का मूल आधार पष्चिमी देषों में है। इनका उद्देष्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विष्व कृषि एवं खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विष्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है। 

इस विषय पर सबसे गहन जानकारी रखने वाले भारत के वैज्ञानिक थे प्रो. पुष्प भार्गव। एक लेख (हिंदुस्तान टाईम्स, 7 अगस्त 2014) में प्रो. भार्गव ने लिखा कि लगभग 500 अनुसंधान प्रकाषनों ने जीएम फसलों के मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं एवं पौधों के स्वास्थ्य पर हानिकारक असर को स्थापित किया है एवं यह सभी प्रकाषन ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी के बारे में कोई सवाल नहीं उठा है।

इस विख्यात वैज्ञानिक ने आगे लिखा कि दूसरी ओर जीएम फसलां का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाषन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने कान्फलिक्ट ऑफ इंटरेस्ट स्वीकार किया है या जिनकी विष्वसनीयता एवं ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं।

प्रायः जीएम फसलों के समर्थक कहते हैं कि वैज्ञानिकों का अधिक समर्थन जीएम फसलों को मिला है पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।

अतः प्राकृतिक खेती सही अर्थों में तभी सफल हो सकेगी यदि हम जीएम फसलों से अपनी कृषि एवं खाद्य व्यवस्था की रक्षा करें।            

Share This

Click to Subscribe